सक्रिय ध्यान से क्रिकेट में नई जान संभव

माँ अमृत साधना
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भारतीय क्रिकेट टीम की अग्नि परीक्षा के दिन हैं। खिलाड़ियों का खेल ही नहीं, वरन उनका रवैया भी कसौटी पर कसा जा रहा है। इस बहाने एक बुनियादी सवाल उभरा है और वह है भारतीय खिलाड़ियों की मानसिकता जो कि भारत के विशाल सामूहिक मन अर्थात कलेक्टिव अन्कॉन्शस का हिस्सा है। जिस तरह हर व्यक्ति का अपना अवचेतन होता है, उसी तरह पूरे समाज का एक सामूहिक अवचेतन होता है। यह समाज मन चेतना का एक विराट सागर होता है। उसमें सदियों-सदियों से बसी हुई प्रवृत्तियों से, संस्कारों से हर राष्ट्र का व्यक्तित्व और चरित्र बनता है।

क्रिकेट और अन्य भारतीय खेलों में अक्सर पाया जाता है कि वे विश्व स्तर के मुकाबले में कमजोर सिद्ध होते हैं। उनमें प्रतिभा की कमी नहीं है, लेकिन उसका सम्यक उपयोग नहीं किया जाता। मेरे देखे इसकी जड़ें भारत की मानसिकता में हैं। यह एक कड़वा सच है कि भारतीय व्यक्ति टीम वर्क अर्थात मिल-जुलकर काम करना नहीं जानता। वह अपने छोटे से दायरे में अपने खुद के लिए जीता है। शायद इसका स्रोत भारत की आध्यात्मिकता में होगा, जहाँ व्यक्तिगत मुक्ति ही जीवन का लक्ष्य था, वहाँ हर व्यक्ति अगर स्वान्तः सुखाय जीने लगे तो अचरज नहीं है।

फिर भारतीय दर्शन मानता है कि शरीर और भौतिक जगत माया है, त्याज्य है; उससे दूर रहो। इस संस्कार की पर्तें अवचेतन में गहरी खुदी हुई है।

भारतीय समूह एक टीम की तरह काम नहीं कर सकता, इसका एक और कारण यह है कि इस देश में ऊँच-नीच भाव बहुत गहरे पैठा हुआ है। जात-पाँत अभी तक समाज की माँस-मज्जा में मौजूद है। एक और बात जो हमें विकसित होने से रोकती है, वह है हमारी पारिवारिक व्यूह रचना, जो पूरी की पूरी छोटे-बड़े की सीढ़ियों से बनी है- एकदम अलंघ्य।

विख्यात ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर स्टीव वॉ को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि भारतीय क्रिकेट टीम अपना सामान खुद नहीं उठाती, सेवकों की प्रतीक्षा करती है। यह आदत किसी भी देश में नहीं दिखाई देती, क्योंकि वहाँ नौकर नामक प्राणी नहीं होता। यहाँ भारत में घर-घर में नौकरों की फौज मौजूद रहती है, फिर शारीरिक श्रम कौन करे। सामान उठाना नौकरों का काम है। यही तर्क थोड़ा खींचा जाए तो गेंद पर चौका लगाना सम्मानजनक है, लेकिन दौड़कर दूसरे की गेंद उठाना छोटा काम है। भारत की फील्डिंग जो कमजोर है, इसकी जड़ हमारी वर्ण व्यवस्था में है।

बहरहाल, एक बात तय है कि यह प्राचीन मन लेकर आज के अंतरराष्ट्रीय युग में हम सफल नहीं हो पाएँगे। फिर सवाल उठता है क्या यह मन बदलना संभव है? बेशक, लेकिन उसके लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।

सौभाग्य से आज हमारे पास एक अत्यंत वैज्ञानिक ध्यान पद्धति उपलब्ध है, जो कि एक चिकित्सा है। इसका नाम है सक्रिय ध्यान।

आधुनिक मनुष्य के मन का गहन अध्ययन कर उसकी आधि-व्याधियों को निरस्त करने के लिए ओशो ने बनाया हुआ अस्त्र है यह। यह ध्यान मनोविज्ञान तथा शरीर विज्ञान के तत्वों पर आधारित है और उसकी संरचना बड़ी अनोखी है।

इस संपूर्ण प्रयोग को खड़े रहकर किया जाता है। शुरुआत होती है तेज, गहरी तथा अराजकपूर्ण श्वासोच्छवास से। भस्रिका से भी अधिक तीव्रता से ली गई श्वास से शरीर के कण-कण में प्राणवायु प्रवेश करता है और प्रत्येक कोशिका में वि'ुत का संचार होता है तथा फेफड़ों में जमा हुई जहरीली हवा बाहर फिंक जाती है।

श्वास का यह झंझावात तन-मन को झकझोर देता है और उसका असर भाव-शरीर पर होता है। आधुनिक बौद्धिक संस्कृति में सर्वाधिक दमित और दलित कुछ है तो भावनाएँ, मनुष्य का भाव-शरीर। व्यक्ति जितना सुशिक्षित होता है, उतना वह अपनी वास्तविक भावनाओं को दबा देता है।

श्वास और भावना का घनिष्ठ संबंध होता है। होशपूर्वक ली गई श्वास भावों को स्पर्श करती है और उससे दबाए हुए भाव उछल कर प्रगट होते हैं। अवसाद, क्रोध, द्वेष, भय, जो भी दबाया होगा, वह सब बहने लगता है।

क्रिकेट खिलाड़ियों के मानसिक तनाव की जरा कल्पना करें, उनका खेल बिगड़ने का मूल कारण वही होता है। अगर उन्हें भीतर घुमड़ती हुई भाप को, कल के पराजय के दंश को बाहर फेंकने का अवसर मिल जाए तो वे कितने निर्भर और निश्चिंत होंगे!

चार्ल्स डार्विन ने मनुष्य व पशु के भावनात्मक व्यवहार पर एक पुस्तक लिखी है, उसमें उसका वक्तव्य है कि दुःख का आसमान टूट पड़ने पर जो आदमी कोई प्रतिक्रिया नहीं करता, वह मन की लोच और तरलता खो देता है; और मन के साथ ही शरीर की भी।

शरीर व भाव की शुद्धि के बाद यह ध्यान और भी गहरे पानी में ले जाता है। नाभि के नीचे दो इंच पर एक ऊर्जा केंद्र है, जिसे हारा कहते हैं, उसमें प्रचंड शक्ति छुपी है, तीसरे चरण में उस ऊर्जा केंद्र को जगाया जाता है, उस पर 'हू' की ध्वनि की चोट करके। इस चोट से इस केंद्र का द्वार खुलता है और ऊर्जा का स्रोत बहने लगता है। जिनका हारा केंद्र बलवान होता है, वे कभी विचलित नहीं होते। मार्शल आर्ट्स में इसी केंद्र के द्वारा लड़ना सिखाया जाता है।

इन तीन सक्रिय चरणों के बाद चौथा चरण होता है निस्तब्ध मौन। यह आकस्मिक स्तब्धता भीतर किसी गहरी घाटी में ले जाती है। शरीर तथा मन का कूड़ा-कर्कट बाहर फेंकने के बाद उदित हुआ मौन संजीवक और निरामय होता है, उसमें मन की दूरियाँ मिट जाती हैं और एक चेतना का अनुभव होता है। यह एकता का अनुभव समूह की एकात्मता के लिए बड़ी कीमत होगी।

इसके बाद सिर्फ आनंद और उत्सव शेष रहता है। यह पंचसूत्री न केवल खिलाड़ियों के लिए, बल्कि किसी भी टीम के लिए रामबाण सिद्ध होगी। आज दुनिया में लाखों लोग इस विलक्षण चिकित्सा के द्वारा निर्भार निरामयता महसूस कर रहे हैं। डॉक्टरों द्वारा मान्यता प्राप्त यह ध्यान सुबह जल्दी उठकर किया जाता है। सुबह की विपुल प्राणवायु, तरोताजा शरीर व मन इस प्रयोग के लिए बहुत अनुकूल होता है।

भारतीय मन पुरातन है। उस पर किए गए भेदभाव के संस्कारों को मिटाने के लिए कोई जबरदस्त इलाज ही कारगर हो सकता है। ओशो सक्रिय ध्यान यह काम भली-भाँति करता है। जब तक मन के अवचेतन में होशपूर्वक अराजक पैदा नहीं किया जाता, तब तक उसमें आमूल रूपांतरण संभव नहीं है।

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