जरा नाता बनाएँ जगत से

ओशो
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हम कभी बच्चे को नहीं सिखाते, नहीं सिखा पाते...न हमने सीखा, न सिखा पाते हैं कि वह जो चारों तरफ विराट ब्रह्मांड फैला हुआ है, उससे हमारा कोई संबंध है। हम सिर्फ आदमियों से संबंध जुड़वाते हैं। हम कहते हैं, यह रही तेरी माँ, यह रहे तेरे पिता, यह रहे तेरे भाई, यह रही तेरी बहन। लेकिन चाँद-तारों से कोई संबंध है? समुद्र की लहरों से कोई संबंध है? आकाश में भटकने वाले बादलों से कोई संबंध है? वृक्षों पर खिलने वाले फूलों से कोई संबंध है? धूप से कोई संबध है? छाया से कोई संबध है, रेत से, पत्थरों से कोई संबंध है, पृथ्वी से कोई संबंध है?

नहीं कोई संबंध नही है। आदमी ने आदमी के बीच संबंध बना लिए हैं और सारे जगत से संबंध तोड़ लिए हैं। जिंदगी कभी भी रसपूर्ण नहीं हो सकती, जब तक कि हम समग्र से न जुड़ जाएँ। ऐसे हम जुड़े हैं, लेकिन मन से टूट गए हैं। आप समुद्र के किनारे बैठकर कभी आनंदित हो लेते हैं, हों क्षण भर को, पर कभी आपने जाना है कि आपको यह आंनद क्यों हो रहा है? यह समुद्र के पास आपको शांति क्यों मालूम पड़ रही है? यह समुद्र की गर्जन में आपको अपनी आवाज क्यों सुनाई पड़ती है, कभी आपने सोचा है?

शायद आपको पता भी न हो- करोड़ों-करोड़ों वर्ष पहले आदमी का पहला जन्म भी तो समुद्र में ही हुआ था, और आज भी आदमी के भीतर जो खून बह रह रहा है, उसमें उतना ही नमक है जितना समुद्र के पानी में है। समुद्र में पानी और नमक का जो अनुपात है वही अनुपात आज भी आदमी के भीतर के पानी और नमक में है। आज भी वही पानी बह रहा है। माँ के पेट में जो बच्चा गर्भ में होता है, उस गर्भ को चारों तरफ से पानी घेरे रहता है, उसमें अनुपात नमक का वही है जो समुद्र में है।

उसी से तो वैज्ञानिक पहली दफा इस खयाल पर पहुँचे, हो न हो किसी तरह आदमी कभी पहली दफा, उसका पहला जीवन समुद्र से शुरू हुआ होगा। आज भी उसके पास पानी का अनुपात वही है। आज भी बच्चा उसी पानी में तैरता और बड़ा होता है। आज भी हमारे शरीर में नमक का जरा-सा अनुपात गिर जाए तो हम मुश्किल में पड़ जाएंगे। नमक का अनुपात वही रहना चाहिए, जो समुद्र में है। जब आप समुद्र के पास जाते हैं, तब आपके शरीर और पूरे व्यक्तित्व में समुद्र कोई सहानुभूति की लहरें उठा देता है आप उसी के हिस्से हैं। आप कभी मछली थे। हम सब कभी मछली थे। उसके निकट जाकर हमारे भीतर वही लहरें उठ आती हैं।

जब पहाड़ पर जाते हैं और देखते हैं हरे वृक्षों के विस्तार को तो मन एकदम शांत होता है, हरे विस्तार को देखकर आनंदित होता है। क्या बात है हरे रंग में? हमारे सारे खून में, हमारी सारी हड्डियों में वृक्षों से लिया हुआ सब कुछ घूम रहा है। हम उनसे ही बने हैं, हम उनसे ही जुड़े हैं।

जब ठंडी हवाओं की लहरें आती हैं और आप उन हवाओं में बहे चले जाते हैं, तो एक खुशी, एक प्रफुल्लता भर जाती है। क्यों? क्योंकि हवा हमारा प्राण है। हम जुड़े हैं, हम अलग नहीं है।

जब रात को पूर्णिमा के चाँद को आप देखते हैं तो कोई गीत आपके भीतर झरने लगता है और कोई कविता फूटने लगती है। अंग्रेजी में शब्द है लुनार, चाँद के लिए। और पागल को कहते हैं लुनाटिक। वह भी उसी से बना हुआ शब्द है। हिंदी में भी कहते है पागल को चाँदमारा।

ऐसा खयाल है कि पूर्णिमा के दिन जितने लोग पागल होते हैं, किसी और दिन नहीं होते हैं। कुछ कारण है। पूर्णिमा का चाँद हमारे भीतर न मालूम कैसी लहरें ले आता है। समुद्र में ही लहरें नहीं आतीं, समुद्र ही ऊपर उठकर चाँद को छूने चले जाता है, ऐसा नहीं है। हमारे प्राण भी किन्हीं गहरी गहराइयों में, हमारे प्राणों की तरंगें भी चाँद को छूने को उठ जाती हैं। लेकिन चाँद से हमारा कोई नाता नहीं है, कोई रिश्ता नहीं है।

हमने सब तरफ से जिंदगी को तोड़ लिया है। और अगर आदमी सब तरफ से जिंदगी को तोड़ेगा और सिर्फ आदमियों की दुनिया बनाएगा, वह दुनिया उदास होगी, दुखी होगी, वह दुनिया सच्ची नहीं होगी, क्योंकि वह दुनिया वास्तविक नहीं है। उसकी जड़ें पूरे ब्रह्मांड पर फैलनी चाहिए। मैं उस आदमी को धार्मिक कहता हूँ जिसका संबंध आदमियों से ही नहीं है, जिसका संबंध सारे जीवन में फैल गया है। एक पशु के साथ भी उसका संबंध है, एक पौधे के साथ भी, एक पक्षी के साथ भी।

आकाश में भी देखा है कभी कोई परों पर तैरती हुई चील को? उसे देखते रहें तो ध्यान में चले जाएँगे। कैसा निष्प्रयास, इफर्टलेस एक चील आकाश में परों को फैलाकर खड़ी रह जाती है! कभी उसे गौर से देखते रहें तो भीतर कोई चील आपके भी पर फैला देगी और बह जाएगी।

जिंदगी सब तरफ से जुड़ी है और आदमी ने उसे तोड़ दिया है। तोड़ी हुई जिंदगी विक्षिप्त हो गई है। इसलिए मैंने कहा, हम समाज नहीं बना पाए, हमने अजायबघर बना लिया है। समाज बनाने में अभी हम बहुत दूर हैं। हमने कटघरे बना लिए हैं, आदमी को प्रकृति से तोड़ दिया है और एक कृत्रिम आदमी को हमने खड़ा कर दिया है। वह आदमी बड़े धोखे का है। एक छोटी-सी कहानी और मैं अपनी बात पूरी करूगाँ ।

एक कवि एक गाँव के पास से गुजरता था, उसने खेत में एक झूठे आदमी को खड़ा हुआ देखा। आपने भी खेतों में झूठे आदमी देखे होंगे, अगर खेत देखे हों, तो वह झूठा आदमी भी देखा होगा, क्योंकि अब तो खेत देखना भी बड़ी मुश्किल बात हो गई है। अभी लंदन में बच्चों का एक सर्वे किया गया तो दस लाख बच्चों ने गाय नहीं देखी है। वे बच्चे पूछने लगे गाय यानी क्या? तीन लाख बच्चों ने कहा कि उन्होंने खेत नहीं देखा।

वह कवि खेत के पास से गुजर रहा है। वहाँ उसने एक झूठे आदमी को खड़ा देखा। उस कवि के मन में बड़ी दया आ गई। वह उस झूठे आदमी के पास गया। हंडी का सिर है, डंडे लगे हैं, कुरता पहने है। उस कवि ने उस झूठे आदमी से पूछा मित्र, खेत खेत में खड़े-खड़े थक जाते होगे, और काम भी बड़ा उबाने वाला है। वर्र्षा, सर्दी, रात-दिन, धूप, गर्मी कुछ भी हो, तुम यहीं खड़े रहते हो। ऊब नहीं जाते हो? घबरा नहीं जाते हो? कभी छुट्टी नहीं मनाते हो?

उस झूठे आदमी ने कहा, बड़ा मजा है इस काम में। दूसरों को डराने में इतना मजा आता है कि अपनी तकलीफ पता ही नही चलती। रात-दिन डराता हूँ। कोई आ जाता है, फिर उसको डरा देता हूँ। इतना मजा आता है कि फुरसत ही नहीं मिलती दूसरों को डरने से कि मैं अपनी चिंता करूँ।

वह कवि सोचने लगा। उसने कहा बात तो बड़ी ठीक कहते हो। मैं भी जब किसी को डरा पाता हँू तो बड़ा आनंद आता है। वह झूठा आदमी हँसने लगा, उसने कहा तुम भी झूठे आदमी हो, क्योंकि सिर्फ झूठे आदमियों को ही दूसरों को डराने में आंनद आता है। तुम भी घाँस-फूस के आदमी हो, तुम्हारे ऊपर भी हंडी लगी है और डंडे लगे हैं और तुमने कुरता पहन लिया है।

मैं सोचने लगा, झूठे आदमी और सच्चे आदमी में फर्क क्या है? हंडी लगी हो, डंडे लगे हों , कुरता पहना हो- इसमें और मुझमें फर्क क्या है?

फर्क इतना ही है कि यह अपने में बंद है, इसकी कोई जड़ें जीवन से जुड़ी हुई नही हैं। इसकी कहीं श्वास नहीं जुड़ी है। किसी आकाश से इसका मन नहीं जुड़ा है। किन्हीं वृक्षों से इसका खून नहीं जुड़ा है। किन्हीं समुद्रों से इसका पानी नहीं जुड़ा है। इसके भीतर कोई जोड़ नहीं है बाहर से। यह सब तरफ से टूटा अपने में बंद है। इसका कोई जोड़ ही नहीं है, इसलिए यह झूठा है।

और सच्चे आदमी का क्या मतलब होता है? कि वह जुड़ा है- रग-रग, रेशा-रेशा, कण-कण से। सूरज से जुड़ा है, चाँद से जुड़ा है। समुद्रों से जुड़ा है। आकाश से जुड़ा है, सबसे जुड़ा है। जितना जो आदमी ज्यादा जुड़ा है, उतना सच्चा होगा और जितना ज्यादा टूटा है, उतना हंडी रह जाएगी, लकड़ियाँ रह जाँएगी, कुरता रह जाएगा।

और करीब-करीब आदमी झूठा हो गया है। सारी मनुष्यता हंडी वाली, कुरते वाली, लकड़ी वाली मनुष्यता हो गई है। वहाँ कोई आत्मा नहीं है, क्योंकि आत्मा तो अंनत जोड़ से उत्पन्न होने वाली संभावना है।

संदर्भ : करुणा और क्रांति
सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल

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