पिता और पुस्तक....

ओशो का बचपन

ओशो
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मेरे पिता साल में चार बार बंबई जाया करते थे और जाते समय वे सब बच्चों से पूछते कि उनके लिए वे क्या लाएँ? मैंने उनसे कभी कुछ नहीं, कुछ लाने को नहीं कहा। हाँ! एक बार यह अवश्‍य कहा था कि मैं चाहता हूँ कि आप अधिक मानवीय, अधिक प्रेमपूर्ण होकर लौटें। पिता होने की अकड़, वहीं छोड़ आएँ और अधिक नम्र बनकर आएँ। उन्होंने हँसकर कहा, 'ये चीजें तो बाजार में नहीं मिलती।' मैंने उत्तर दिया, 'हाँ! ये वहाँ नहीं मिलती किंतु मुझे चाहिए अधिक स्वतंत्रता और अधिक आदर एवं कम आदेश। कोई बच्चा आदर नहीं माँगता। सब बच्चे साईकल, खिलौने, मिठाई और कपड़े माँगते हैं किंतु ये चीजें जीवन को आनंदपूर्ण नहीं बना सकती।

मैंने अपने पिता से तभी पैसे माँगता था जब मुझे पुस्तकें खरीदनी होती थी, और किसी चीज के लिए मैं उनसे पैसे नहीं माँगता था। मैंने उनसे यह स्पष्ट कह दिया था कि जब भी मैं पैसे माँगू, मुझे आप पैसे दे दें क्योंकि मुझे पुस्तकें चाहिए और मैं उन्हें खरीदूँगा ही। अगर आप पैसे नहीं देंगे तो मैं चोरी करके ले लूँगा। किंतु मैं चोर नहीं बनना चाहता और आप विश्‍वास कीजिए ‍कि मुझे सिवाय पुस्तकों के, और किसी चीज के लिए पैसा नहीं चाहिए।

पिता तो स्वयं ही देख रहे थे कि घर में पुस्तकालय की संख्या बढ़ती जा रही है और धीरे-धीरे सारा घर पुस्तकों से भर गया। यह देखकर मेरे पिता ने कहा कि पहले तो हमारे घर में पुस्तकाल था किंतु अब पुस्तकालय में घर है और सबकों इन पुस्तकों की देखभाल करना पड़ती है क्योंकि अगर कोई पुस्तक खराब हो जाए तो तुम सब के लिए मुसिबत खड़ी कर देते हो। पुस्तकें सब जगह फैली हुई हैं और घर में छोटे बच्चे हैं जो इन से टकरा जाते हैं। मैंने कहा कि छोटे बच्चों की समस्या नहीं। मैं उनका इतना आदर करता हूँ कि वे मेरी पुस्तकों का विशेष ध्यान रखते हैं।

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और यह सच है कि मेरे छोटे भाई बहिन मेरी पुस्तकों का बहुत देखभाल करते थे। जब मैं घर में नहीं होता था तो वे किसी को इन्हें छूने भी नहीं देते थे। वे उनको झाड़-पोंछ कर वहीं रख देते जहाँ मैंने उन्हें रखा था ताकि उनको खोजने में मुझे कोई दिक्कत न हो। बात स्पष्ट थी- चूँकि में उनको आदर देता था वे मेरी पुस्तकों की देखभाल करके मेरे प्रति अपना आदर प्रकट करते थे। समस्या तो बड़े लोग थे। मेरे चाचा-चाची, मेरी बड़ी बहिनें-बहनोई ये लोग मेरी पुस्तकें पढ़ते और उन पर निशान लगा देते और यह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था! मेरे पिता के एक बहिनोई प्रोफेसर थे। उन्हें पुस्तकों पर निशान लगाने की और उन पर टिप्पणी लिखने की आदत थी। जब भी वह आते मेरी सुंदर-सुंदर पुस्तकों पर निशान लगा देते। आखिर मुझे उन्हें मना करना पड़ा कि मेरी पुस्तकों को कुरूप मत बनाओ। मैं पुस्तकालय की पुस्तकें इसलिए नहीं पढ़ता कि दूसरे पाठकों ने उस पर निशान लगा दिए हैं। लाल रंग की स्याही से अगर किसी पंक्ति के नीचे रेखा खींच दी हो तो पढ़ने वाले के दिमाग में वह रेखांकित पंक्ति ही महत्वपूर्ण हो जाती है। निशान लगी हुई और रेखांकित पुस्तक मुझे नहीं चाहिए, आप इसे अपने साथ ले जाइए।

मेरी बात सुनकर वह बहुत नाराज हो गए। मेरे पिता ने भी उन्हें समझाया कि मेरी पुस्तक पर उन्हें निशान नहीं लगाने चाहिए और उससे बिना पूछे उसके पुस्तकालय से पुस्तक भी नहीं लेनी चाहिए। बिना उससे पूछे उसकी चीज को कोई छूता भी नहीं है। अगर बिना उससे पूछे उसकी चीज को कोई छू लेता है तो वह उसके नाक में दम कर देता है। अभी उस दिन मेरा एक मित्र गाड़ी पकड़ने जा रहा था और इसने उसके सूटकेस को छीन लिया और छुपा दिया। वह अपना सूटकेस खोजने लगा। मैंने उससे कहा कि मुझे मालूम है कि उसका सूटकेस कहाँ है लेकिन उस सूटकेस में मेरी एक पुस्तक है और मुझे अपनी पुस्तक चाहिए, अपना सूटकेस खोलिए।' वह उसे खोलना नहीं चाहता था किंतु मजबूरन जब उसने उसे खोला तो मेरी पुस्तक उसमें पाई गई। मैंने उससे कहा, 'आपने मेरी पुस्तक को चुरा लिया। मेरी आँखों को कोई धोखा नहीं हो सकता। जैसे ही मैं अपने कमरे में घुसता हूँ मुझे पता चल जाता है कि मेरी कौन-सी पुस्तक अपनी जगह पर नहीं है। अंत में मेरे पिता ने उस प्रोफेसर को समझाया कि इसकी पुस्तक पर कभी निशान मत लगाना। अब लगा दिया है तो उस पुस्तक के बदले वहाँ पर नयी पुस्तक लाकर रख दो।

- ओश ो
ग्लिम्प्सेज ऑफ गोल्डन चाइल्डहु ड
साभार : ओशो टाइम्स फरवरी 1998
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