भगवान श्रीकृष्ण सर्वप्रथम वसुदेवजी के हृदय में प्रविष्ट हुए, उनका प्रवेश होते ही वसुदेव सूर्य, चंद्रमा और अग्नि के सदृश तेज से उद्भासित हो उठे। मानो उनके रूप में दूसरे यज्ञनारायण ही प्रकट हो गए। संसार को अभय देने वाले श्रीकृष्ण देवी देवकी के गर्भ में आविष्ट हुए इससे उस कारागृह में देवकी दिव्यदीप्ति से दमक उठीं। समस्त मथुरा नगर निश्चेष्ट होकर सो रहा था। घनघोर अंधकार से रात्रि व्याप्त थी।
जब रात्रि के सात मुहूर्त निकल गए और आ ठवा ँ उपस्थित हुआ तभी आधी रात के समय सबसे शुभ लग्न उपस्थित हुआ क्योंकि वह वेदों से अतिरिक्त तथा दूसरों के लिए दुर्ज्ञेय लग्न था, उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। अशुभ ग् रहो ं की दृष्टि पड़ना तो स्वाभाविक ही नहीं था। रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग सम्पन्न हो गया।
जब आधा चंद्रमा उदय हुआ उस समय लग्न की ओर देखकर भयभीत हुए सूर्य आदि सभी ग्रह आकाश में अपने गति के क्रम को ला ँघकर मीन लग्न में जा पहु ँचे। शुभ तथा अशुभ सभी ग्रह वहाँ एकत्र हो गए। संसार की रचना करने वाले की आज्ञा से एक मुहूर्त के लिए वे सभी ग्रह प्रसन्नचित्त से ग्यारहवें स्थान में जाकर स्थित हो गए। उस समय आकाश से वर्षा होने लगी। ठंडी-ठंडी हवा चलने लगी। पृथ्वी अत्यंत प्रसन्न मुद्रा में थी। दसों दिशाएं स्वच्छ एवं निर्मल हो गईं। ऋषि-मुनि, यक्ष-गंधर्व, किन्नर, देवता तथा देवियां सभी प्रसन्न एवं आनंदमग्न थे। उस समय अप्सर ाएँ नृत्य कर रही थीं। गंधर्वराज तथा विद्याधरियां गीत का गायन कर रही थीं।
समस्त नद ियाँ सुखपूर्वक प्रवाहित हो रही थीं। अग्निहोत्र की अग्नियां प्रसन्न होकर प्रज्वलित हो रही थीं। स्वर्ग में दुन्दुभियों एवं अन्य वाद्यों की ध्वनि होने लगी। उसी समय पृथ्वी माता एक नारी का रूप धारण करके स्वयं बंदीगृह में पहुंचीं। वहां जय-जयकार, शंखनाद और हरिकीर्तन का शब्द गुंजायमान हो रहा था। इसी समय देवकी गिर पड़ीं, उनके पेट से वायु निकल गई और वहीं भगवान श्रीकृष्ण दिव्य रूप धारण करके देवकी के हृदयकमल के कोष से प्रकट हो गए। उनका शरीर अत्यंत कमनीय और परम मनोहर था। उनकी दो भुज ाए ँ थीं। हाथ में मुरली शोभायमान थी। कानों में मकराकृत कुण्डल सुशोभित थे। मुख मंद-मंद हास्य की छटा से प्रसन्न जान पड़ता था। ऐसा ज्ञात होता था कि वे अपने भक्तों पर कृपा करने के लिए कातर से दिखाई दे रहे हैं।
श्रेष्ठ मणिरत्नों के सारतत्व से बने हुए आभूषण उनकी देहयष्टि की शोभा बढ़ा रहे थे। पीताम्बर से सुशोभित श्रीविग्रह की कांति नूतन जलधर के समान श्याम थी। चंदन, अगरु, कस्तूरी तथा कुंकुम के द्रव्य से निर्मित अंगराग उनके सर्वांग में लगा हुआ था। उनका मुख शरद पूर्णिमा के शशधर की शुभ्रा ज्योत्स्ना को भी तिरस्कृत कर रहा था। बिम्बफल के सदृश लाल अधर के कारण उनकी मनोहरता और भी बढ़ गई। उनके माथे पर मोरपंख के मुकुट और उत्तम रत्नमय किरीट से श्रीहरि की दिव्य ज्योति और भी जाज्वल्यमान हो उठी।
टेढ़ी कमर, त्रिभंग ीझा ँकी, वरमाला का श्रृंगार, वक्ष में श्रीवत्स की स्वर्णमयी रेखा और उस पर मनोहर कौस्तुभमणि की भव्य प्रभा अद्भुत शोभा पा रही थी। उनकी किशोर अवस्था थी, वे शांत स्वरूप भगवान श्री हरि, ब्रह्मा और महादेवजी के भी प्राणवल्लभ थे। वसुदेव और देवकी ने उन्हें अपने समक्ष इस प्रकार जब देखा तो उन्हें अत्यधिक आश्चर्य हुआ। वसुदेवजी ने अपनी पत्नी के साथ अश्रुपूरित नयन, पुलकित शरीर तथा नमस्तक हो दोनों हाथों को जोड़कर उनकी भक्तिभाव से प्रार्थना की।
बालक कृष्ण का पालन-पोष ण
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वसुदेव द्वारा बालक कृष्ण को नन्दजी को देने के पश्चात नंदजी के गृह में पुत्र-जन्मोत्सव का समाचार संपूर्ण गोकुल में व्याप्त हो गया। नंदजी के गृह में पुत्र-जन्मोत्सव होने के कारण प्रातःकाल ब्राह्मणों को बुलवाया गया तथा स्वस्तिवाचनपूर्वक मंगल कार्य हुआ। शास्त्रों की विधि के अनुसार जातकर्म संस्कार सम्पन्न हुआ। यशोदा ने यह कहा आप सभी की दया और आशीर्वाद से ही मेरे घर में शुभ दिन आया है जिस कारण यह आनंदोत्सव प्राप्त हुआ। मेरे ऊपर प्रभु की बड़ी दया रही है।
अब यशोदा श्रीकृष्ण जैसे पुत्र को प्राप्त कर दिन-रात उन्हीं के लालन-पालन में लगी रहती थी। यहा ँ तक कि उन्हें यह भी सुध नहीं रहती थी कि उन्होंने भोजन किया है अथवा नहीं। भगवान श्रीकृष्ण ने बाल्यावस्था में ही यशोदा के समक्ष इस प्रकार की नटखट क्रिया करते थे जिसे देखकर वे मंत्रमुग्ध हो जाती थी।