श्रीकृष्ण और उनकी मुरली

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- पूज्य साने गुरुजी
अहंकार के कालिया नाग को मिटाना पड़ता है। हमारा अहंकार निरंतर फुफकार मार रहा है। हमारे आसपास कोई आ नहीं सकता। मैं बड़ा हूँ। मैं श्रेष्ठ हूँ। दूसरे सब मूर्ख हैं। इस प्रकार के अहंकार के आसपास कौन रहेगा?

' जो सबसे ही रहे झगड़ता,
उसके जैसा कौन अभागा?'

ऐसी दुनिया में सबसे लड़ता रहने वाला यह अकेला अहंकारी कब मुक्त होगा? कृष्ण इस अहंकार के फन पर खड़ा है। जीवन यमुना से वह इस कालिया नाग को भगा देता है। इस जीवनरूपी गोकुल के द्वेष मत्सर के बड़वानल को श्रीकृष्ण निगल जाता है। वह दंभ, पाप के राक्षसों को नष्ट कर देता है।

इस प्रकार जीवन शुद्ध होता है। एक ध्येय दिखाई देने लगता है। उस ध्येय को प्राप्त करने की लगन जीव को लग जाती है। जो मन में वही होंठों पर, वही हाथों में। आचार, उच्चार और विचार में एकता आ जाती है। हृदय की गड़बड़ रुक जाती है। सारे तार ध्येय की खूँटियों से अच्छी तरह बाँध दिए जाते हैं। उनसे दिव्य संगीत फूटने लगता है।

गोकुल में कृष्ण की मुरली कब बजने लगी?

' सुखद शरद का हुआ आगमन
वन में खड़ी हुई ग्वालिन।
लो, बाँट रहे हैं सुरभि सुमन,
उस मलयाचल से बही पवन।'

ऐसा था वह प्रफुल्ल करने वाला पावन समय। हृदयाकाश में शरद ऋतु होनी चाहिए। अब हृदय में वासना विकार के बादल नहीं हैं। आकाश स्वच्छ है। शरद ऋतु में आकाश निरभ्र रहता है। नदियों की गंदगी नीचे बैठ जाती है। शंख जैसा स्वच्छ पानी बहता रहता है। हमारा जीवन भी ऐसा ही होना चाहिए। आसक्ति के बादल नहीं घिरने चाहिए। अनासक्त रीति से केवल ध्येयभूत कर्मों में ही मन रंग जाना चाहिए। रात-दिन आचार और विचार शुद्ध होते रहने चाहिए।
'अपने आँगन में पानी डालकर मैं खूब कीच बना देती हूँ और मैं उस कीच में चलने का अभ्यास करती हूँ। क्योंकि उसकी मुरली सुनते ही मुझे जाना पड़ता है और यदि मार्ग में कीचड़ हुआ तो परेशानी होगी, लेकिन यदि आदत हुई तो भाग निकलूँगी।'
- बंगाली गीत

शरद ऋतु है और है शुक्ल पक्ष। प्रसन्न चंद्र का उदय हो चुका है। चंद्र का मतलब है मन का देवता। चंद्र उगा है, इसका यह मतलब है कि मन का पूर्ण विकास हो गया है। सद्भाव खिल गया है। सद्विचारों की शुभ चांदनी खिली हुई है। अनासक्त हृदयाकाश में चंद्र सुशोभित हुआ है। प्रेम की पूर्णिमा खिल गई है।

ऐसे समय सारी गोपियाँ इकट्ठी होती हैं। सारी मनःप्रवृत्तियाँ श्रीकृष्ण के आसपास इकट्ठी हो जाती हैं। उन्हें इस बात की व्याकुलता रहती है कि हृदय सुव्यवस्थिता पैदा करने वाला, गड़बड़ी में से सुंदरता का निर्माण करने वाला वह श्यामसुंदर कहाँ है? उस ध्येयरूपी श्रीकृष्ण की मुरली सुनने के लिए सारी वृत्तियाँ अधीर हो उठती हैं।

एक बंगाली गीत में मैंने एक बड़ा ही अच्छा भाव पढ़ा था। एक गोपी कहती है- 'अपने आँगन में काँटे बिखेरकर मैं उसके ऊपर चलने की आदत बना रही हूँ। क्योंकि उसकी मुरली सुनकर मुझे दौड़ना पड़ता है और यदि मार्ग में काँटे हों तो शायद एकाध बार मुझे रुकना पड़ेगा। यदि आदत हो तो अच्छा रहेगा।'

' अपने आँगन में पानी डालकर मैं खूब कीच बना देती हूँ और मैं उस कीच में चलने का अभ्यास करती हूँ। क्योंकि उसकी मुरली सुनते ही मुझे जाना पड़ता है और यदि मार्ग में कीचड़ हुआ तो परेशानी होगी, लेकिन यदि आदत हुई तो भाग निकलूँगी।'

एक बार ध्येय के निश्चित हो जाने पर फिर चाहे वह विष हो, अपने मन का आकर्षण उसी तरफ होना चाहिए। कृष्ण की मुरली सुनते ही सबको दौड़ते हुए आना चाहिए। घेरा बनाना चाहिए। हाथ में हाथ डालकर नाचना चाहिए। अंतर्बाह्य एकता होनी चाहिए।

हृदय शुद्ध है। प्रेम का चंद्रमा चमक रहा है। सारी वासनाएँ संयत हैं। एक ध्येय ही दिखाई दे रहा है। आसक्ति नहीं है। द्वेष-मत्सर मिट गए हैं। अहंकार का शमन हो चुका है। दंभ छिप गया है। ऐसे समय गोकुल में मुरली शुरू होती है। इस जीवन में से गीत शुरू होता है। उस संगीत की मिठास का कौन वर्णन कर सकेगा? उस संगीत की मिठास का स्वाद कौन ले सकेगा?

महात्माजी ने कहा था- 'मेरे हृदय में तंबूरा स्वर में मिला हुआ है।' महान उद्गार है यह। प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में इस प्रकार तंबूरा स्वर में मिला हुआ हो सकता है। प्रत्येक के जीवनरूपी गोकुल में यह मधुर मुरली बज सकती है। लेकिन कब? उस समय जबकि व्यवस्था करने वाला तथा इंद्रियों को आकर्षित करके ध्येय की ओर ले जाने वाला श्रीकृष्ण पैदा हो।

यह श्रीकृष्ण हमारे सबके जीवन में है। जिस प्रकार किसी पहाड़ में बाहर के ऊबड़-खाबड़ पत्थरों में कोई शिवालय होता है, उसी प्रकार अपने इस ऊबड़-खाबड़ और गंदे जीवन के अंतःप्रदेश में एक शिवालय है। हमारे सबके हृदय सिंहासन पर शंभु, मृत्युंजय, सदाशिव विराजमान है। वह हमेशा दिखाई नहीं देता लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि वह है।

यह बालक ही बालकृष्ण है। यह बालकृष्ण बड़ा होने लगता है। वह उदास न रहकर बलवान बनता है। गुप्त न रहकर प्रकट होने लगता है। जीवन-गोकुल में संगीत का निर्माण करने के लिए प्रयत्न करने लगता है। इस बालकृष्ण को बड़ा करना हमारा काम है। यदि आप अपने जीवन में संगीत लाना चाहते हैं तो इस मुरलीधर को पाल-पोसकर बड़ा कीजिए।

हृदय की यह वेणु कभी-कभी सुनाई देती है। लेकिन वेणु का यह नाद अखंड रूप से सुन पा सकने योग्य बनना चाहिए। जब तक हम दूसरी आवाजें बंद नहीं करते तब तक इस अंतर्नाद को नहीं सुन सकेंगे। दूसरी वासनाओं के गीत बंद किए बिना ध्येय गीत किस प्रकार सुना जा सकेगा? ऊपर के कंकड़-पत्थर दूर करते ही, उसके नीचे बहने वाला झरना दिखाई देने लगता है। उसी प्रकार अहंकार, आसक्ति व राग-द्वेष के पत्थर फोड़कर दूर करने पर ही हृदय में भाव गंगा की कलकल ध्वनि सुनाई देगी। काम-क्रोध के नगाड़े बंद कीजिए, तभी हृदय के अंदर के शिवालय की मुरली सुनाई देगी।

हरिजनों के लिए किए गए उपवास के समय महात्माजी ने आश्रम के बालकों को लिखे एक पत्र में कहा था- 'चालीस वर्षों की सेवा से मैंने अंतःकरण में थोड़ी व्यवस्था का निर्माण किया है। संयम व तपस्या द्वारा मैंने अपने जीवन का बेसुरापन दूर किया है, इसीलिए मैं अंतर की सुंदर आवाज सुन सकता हूँ।'

सेवा द्वारा, संयम द्वारा इस संगीत का निर्माण करना है। श्रीकृष्ण मानो मूर्त संयम है। कृष्ण तो आकर्षित करने वाला, अर्जुन के घोड़ों को संयम में रखने वाला और इंद्रियों के घोड़ों को मनमाने न जाने देने वाला ही श्रीकृष्ण है। संयम के बिना संगीत नहीं। संगीत का अर्थ है मेल, प्रमाण। प्रमाण का अर्थ है सौंदर्य। जीवन में सारी बातों का प्रमाण साधने का मतलब ही है संगीत का निर्माण करना। यही योग है।

इसके लिए प्रयत्न की आवश्यकता है। रात-दिन प्रयत्न करना है। यदि उस अत्यंत मधुर मुरली की आवाज सुनने का सौभाग्य प्राप्त करना है तो रात-दिन अविश्रांत प्रयत्न करना चाहिए, दक्षता रखनी चाहिए।

' निशिवासर चल रहा युद्ध
अंदर बाहर, जग में मन में॥'

रात-दिन बाह्य दुनिया में और मन में कदम-कदम पर झगड़े होंगे। बार-बार गिरना होगा, लेकिन बार-बार उठना होगा, बढ़ना होगा। प्रयत्न करना ही मनुष्य के भाग्य में है। पशु के जीवन में प्रयत्न नहीं होता। आज की अपेक्षा कल आगे जाय, आज की अपेक्षा कल अधिक पवित्र बने, पशु में यह भावना नहीं है। जो मुक्त हो गया है, उसको यह प्रयत्न नहीं करना पड़ता जिसके जीवन में प्रयत्नशीलता नहीं, वह तो पशु है या मुक्त है।

प्रयत्नशीलता हमारा ध्येय है। हम सब प्रयत्न करने वाले बालक हैं। 'इंकलाब जिन्दाबाद' का अर्थ है क्रांति चिरायु हो। प्रयत्न चिरायु हो। उत्तरोत्तर विकास हो। प्रयत्न करते-करते एक दिन हम परम पद प्राप्त करें।

' इसीलिए श्रम किया निरंतर
अंतिम दिन बन जाय मधुर।'

यह सारा कठिन परिश्रम, यह सारा प्रयत्न उस अंतिम दिन को मधुर बनाने के लिए ही है। इसीलिए है कि वह मधुर ध्वनि सुनाई दे। यदि वह दिन सौ जन्मों में आए तब भी यह कहना चाहिए कि वह जल्दी आया।

फ्रांस के प्रसिद्ध कहानी लेखक आनालोते ने एक स्थान पर लिखा है- 'यदि ईश्वर मुझसे पूछे कि तेरी क्या-क्या बातें मिटा दूँ तो मैं कहूँगा मेरी सब बातें मिटा दे। लेकिन मेरे प्रयत्न मत मिटा, मेरे दुःख मत मिटा।'

कुंती ने कहा- 'मुझे सदैव विपत्ति दे।' विपत्ति का ही अर्थ है प्रयत्न, खींचतान, पूर्णता का स्मरण करके उसे प्राप्त करने के लिए होती रहने वाली व्याकुलता। जिसमें यह व्याकुलता है वह धन्य है। उसके जीवन में आज नहीं तो कल श्रीकृष्ण की मधुर मुरली बजने लगेगी।

श्रीकृष्ण ने पहले गोकुल में आनंद ही आनंद का निर्माण किया। उसने पहले गोकुल में मुरली बजाई और उसके बाद वह संसार में संगीत का निर्माण करने के लिए गया। पहले उसने गोकुल की दावाग्नि बुझाई, गोकुल के कालिया नाग को मारा। अधासुर, बकासुर को मारा। उसके बाद समाज के दंभ, समाज की द्वेष-मत्सर की दावाग्नि दूर करने के लिए वह बाहर गया। अपने जीवन के संगीत को वह सारे त्रिभुवन में सुनाने लगा। पत्थर पिघल गए।

जब मनुष्य अपने अंतःकरण में स्वराज्य की स्थापना कर लेगा तो वहाँ संगीत, सुसंबद्धता, ध्येयात्मता, निश्शंकता, सुसंवादिता का निर्माण कर लेगा। वहाँ की दावाग्नि को बुझा देगा, वहाँ के असुरों का संहार कर देगा। सारांश यह कि जब वह अपने मन का स्वामी बन जाएगा तभी वह संसार में भी आनंद का निर्माण कर सकेगा। जिसके अपने जीवन में आनंद नहीं है वह दूसरों को क्या आनंद दे सकेगा? जो स्वयं शांत नहीं है वह दूसरों को क्या खाक शांति देगा? जिसके स्वयं के जीवन में शांति नहीं है वह दूसरों के जीवन का रुदन कैसे मिटा सकेगा? जो खुद गुलाम है वह दूसरों को कैसे मुक्त कर सकेगा?

जो अहं को जीत नहीं सकता वह दूसरों को कैसे जीत सकेगा? स्वयं गिरा हुआ आदमी दूसरों को नहीं उठा सकता। स्वयं बंधन में बँधा हुआ व्यक्ति दूसरों को मुक्त नहीं कर सकता। स्वयं हमेशा घुटनों में मुँह छिपाकर रोने वाला दूसरों को हँसा नहीं सकता। स्वयं स्फूर्तिहीन होकर दूसरों को किस प्रकार चेतना दे सकेगा? स्वयं निरुत्साहित होकर दूसरों को उत्साही किस प्रकार बना सकेगा?

अतः पहले अपने जीवनरूपी गोकुल को सुखमय एवं आनंदमय बनाओ। तभी आप अपने आसपास के संसार को आनंदमय कर सकोगे, अपनी बेसुरी जीवन बांसुरी को सुधारो तभी दूसरों की जीवन बांसुरी को सुधार सकोगे।

लेकिन वह दिन कब आएगा? आएगा, एक दिन आएगा। यह जीवन यमुना उस दिन के आने तक अशांत रहेगी। इसमें कभी क्रोध-मत्सर की और कभी स्नेह प्रेम की प्रचंड लहरें हिलोरें लेने लगेंगी, लेकिन सारा प्रयत्न, यह टेढ़ी-मेढ़ी उछलकूद उस ध्येय के लिए ही है। श्रीकृष्ण के परम पवित्र चरणों को स्पर्श करने के लिए ही यह व्याकुलता है। एक दिन श्रीकृष्ण के चरणों का स्पर्श प्राप्त होगा और यह यमुना शांत हो जाएगी। उस ध्येय भगवान के चरणों में गिर जाने के लिए वह यमुना अधीर है।

तूफान शांत होने के लिए उठता है, जीवन भी शांत होने के लिए ही प्रयत्न कर रहा है। संगीत निर्माण करने वाले भगवान के चरणों का स्पर्श करने के लिए जीवन व्याकुल है। आएगी, वह शरद ऋतु एक दिन अवश्य आएगी। एक दिन वह मधुर हवा अवश्य बहेगी। वह मधुर चाँदनी अवश्य खिलेगी। उस दिन गोकुल में प्रेम राज्य की स्थापना करने वाले अव्यवस्था, धांधली, अपनी डफली अपना राग, गंदगी, दावाग्नि, दंभ दूर करके प्रेम स्थापित करने वाले उस श्रीकृष्ण कन्हैया की मुरली की अमृत ध्वनि हमारे जीवन में सुनाई देगी। उस श्यामसुंदर की पागल बना देने वाली वेणु बजती रहेगी।

' बज रही है वेणु मनहर
अब न इंद्रिय धेनु गहती नित्य मनमानी डगर।
जीवन गोकुल में बनमाली
आ जा, यहाँ खिली हरियाली
हर्ष-मत्त हो चरण-रेणु, हम रख लेंगे निज मस्तक ऊपर।
मेरी वृत्ति मुग्ध-सी गोपी
प्रेम-बेलि पागल हो रोपीकहती-मैं कुछ नहीं जानती,
मेरे तो बस गिरिधर नागर।'
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