संजा पर्व का आखिरी दिन

हूँ तो नी जऊँ दादाजी सासरिया

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16 दिवसीय संजा पर्व में अश्विन कृष्ण त्रयोदशी से मंगलवार से बने किलाकोट को अब भरा जा रहा है। आश्विन कृष्ण अमावस्या गुरुवार को संजा पर्व का आखिरी दिन है। 16 दिनों बाद एकत्र उखड़ी, सूखी संजा को ढोल-ढमाके के साथ नदी पर जाकर विसर्जित किया जाएगा। विसर्जन के पहले संजा की आरती-पूजा और प्रसाद वितरण किया जाता है और फिर भारी मन से होती है संजा की बिदाई।

किलाकोट में चाँद-सूरज सहित बीचों-बीच संजा माता की गाड़ी, खटोला (पलंग) और पालकी बनाए जाते हैं, जिसमें बैठकर संजा ससुराल जाएगी। पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों में केल और खजूर के पेड़ बनाए जाते हैं। विविध रंग-रूप और आकार-प्रकार वाले विचित्र मनुष्य संसार की झलक भी जाड़ी-जसोदा और पतली पेमा की आकृतियों में देखी जा सकती है। पहले बन चुकी आकृतियों का भी समावेश किलाकोट में होता है। बालिकाओं का संपूर्ण कृतित्व किलाकोट के माध्यम से बड़ी संजधज के साथ प्रस्तुत होगा।

लोक कलाकार कृष्णा वर्मा के अनुसार लड़कियॉं शादी होने के पहले वर्ष संजा बनाती हैं और उसका उद्यापन इस अनुग्रह के साथ कर देती हैं कि उसे अच्छा घर-वर मिला है। सोलहवें दिन ब्राह्मण को बुलाकर विधिवत पूजा-उद्यापन करती हैं। कन्याओं को बाँस की 16 छाबड़ियों में सुहाग सामग्री रख दी जाती है। इसके बाद संजा से उनका नाता हमेशा के लिए टूट जाता है।

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संजा के दुःख की सहभागी बालिकाएँ जहाँ संजा के पति खोड़या ब्राह्मण, उद्दंड देवर और निर्दयी सास को मन भरकर खरी-खोटी सुनाती हैं, वहीं संजा अपने भाई-भावज के आने की बाट जोहती है। पारिवारिक जीवन की धूप-छाँव के ऐसे अनेक बिंब संजा गीतों में दिखाई पड़ते हैं, जो मनहर और मर्मस्पर्शी हैं। संजा के ससुराल जाने की तैयारी चल रही है, लेकिन संजा ससुराल जाने को तैयार नहीं हैं।

संजा का सासरे से हाथी भी आया, घोड़ा भी आया,
म्याना भी आया, पालकी भी आई।

तम तो जावो अब संजाबई सासरिये,
हूँ तो नी जऊँ दादाजी सासरिये।

घोड़ा पायेग बदावाँ, हाथी ठाणे बदावाँ
म्याना मेले उताराँ, पालकी छज्जे उताराँ,

हूँ तो नी जऊँ दादाजी सासरिये।

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