धार्मिक ग्रंथों के अनुसार देव दीपावली पर्व दिवाली के पंद्रह दिन बाद मनाया जाता है। यह कार्तिक पूर्णिमा का त्योहार है, जो वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में मनाया जाता है। यह विश्व के सबसे प्राचीन शहर काशी की संस्कृति एवं परंपरा है।
यह पर्व काशी के ऐतिहासिक घाटों पर कार्तिक पूर्णिमा के दिन मां गंगा के घाटों पर मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन देवतागण दिवाली मनाते हैं व इसी दिन देवताओं का काशी में प्रवेश हुआ था। देव दीपावली की पृष्ठभूमि पौराणिक कथाओं से भरी हुई है। पढ़ें 2 कथा-
पहली कथा :
इस कथा के अनुसार भगवान शंकर ने देवताओं की प्रार्थना पर सभी को उत्पीडि़त करने वाले राक्षस त्रिपुरासुर का वध किया, जिसके उल्लास में देवताओं ने दीपावली मनाई, जिसे आगे चलकर देव दीपावली के रूप में मान्यता मिली।
दूसरी कथा :
इस कथा के अनुसार त्रिशंकु को राजर्षि विश्वामित्र ने अपने तपोबल से स्वर्ग पहुंचा दिया। देवतागण इससे उद्विग्न हो गए और त्रिशंकु को स्वर्ग से भगा दिया। शापग्रस्त त्रिशंकु अधर में लटके रहे। त्रिशंकु को स्वर्ग से निष्कासित किए जाने से क्षुब्ध विश्वामित्र ने अपने तपोबल से पृथ्वी-स्वर्ग आदि से मुक्त एक नई समूची सृष्टि की ही रचना प्रारंभ कर दी।
उन्होंने कुश, मिट्टी, ऊंट, बकरी-भेड़, नारियल, कोहड़ा, सिंघाड़ा आदि की रचना का क्रम प्रारंभ कर दिया। इसी क्रम में विश्वामित्र ने वर्तमान ब्रह्मा विष्णु महेश की प्रतिमा बनाकर उन्हें अभिमंत्रित कर उनमें प्राण फूंकना आरंभ किया। तब सारी सृष्टि डांवाडोल हो उठी। हर तरफ कोहराम मच गया।
हाहाकार के बीच देवताओं ने राजर्षि विश्वामित्र की अभ्यर्थना की। महर्षि प्रसन्न हो गए और उन्होंने नई सृष्टि की रचना का अपना संकल्प वापस ले लिया। देवताओं और ऋषि-मुनियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। पृथ्वी, स्वर्ग, पाताल सभी जगह इस अवसर पर दीपावली मनाई गई। यही अवसर अब देव दीपावली के रूप में विख्यात है।