सर्वप्रथम होलिका दहन के स्थान से होली की जली राख से बिना थापे बने कंडे (खड़े) एवं पांच कंकर की गौरा माता घर लाते हैं। यह तभी निश्चित कर लिया जाता है कि कितने रथ तैयार होंगे।
उसी अनुरूप छोटी-छोटी टोकरियों (कुरकई) में चार देवियों के स्वरूप चार में गेहूं के जवारे एवं बच्चों के स्वरूप छोटे-छोटे दीपकों में सरावले बोए जाते हैं। एक बड़े टोकने में मूलई राजा बोए जाते हैं।
चारों देवियों एवं सरावले व मूलई राजा के जवारों का नित्य अति शुद्धता पूर्व पूजन एवं सिंचन जिस कमरे में किया जाता है उसे माता की कोठरी कहते हैं। इसी माताजी की वाड़ी में प्रतिदिन शाम को कई स्त्रियां धार्मिक भावना से चारों माता के विष्णु राजा की पत्नी लक्ष्मी, ब्रह्माजी की सइतबाई, शंकरजी की गउरबाई एवं चंद्रमाजी की रोयेणबाई के गीत मंगल गान के रूप में गाए जाते हैं।
तंबोल यानी गुड़, चने, जुवार, मक्के की धानी, मूंगफली) बांटी जाती है।
फिर गणगौर का प्रसिद्ध गीत गाते हैं - पीयर को पेलो जड़ाव की टीकी,
मेण की पाटी पड़ाड़ वो चंदा...
कसी भरी लाऊं यमुना को पाणी...
हारी रणुबाई का अंगणा म ताड़ को झाड़।
ताड़ को झाड़ ओम म्हारी
देवि को र्यवास।
रनूबाई रनू बाई, खोलो किवाड़ी...।
पूजन थाल लई उभी दरवाजा
पूजण वाली काई काई मांग...
अपने परिवार की सुख-समृद्धि हेतु भक्त इस तरह से विनती कर वरदान मांग लेते हैं। माता के विसर्जन से पूर्व जो लोग माता के रथ लाते हैं, अपने घर सुंदर रथ श्रृंगार कर वाड़ी पूजन के पश्चात घर ले जाते हैं।
सायंकाल सभी रथों को खुशी प्रकट करने हेतु झालरिया गीत गाए जाते हैं। नौवें दिन माता की मान-मनौती वाले परिवार रथ बौड़ाकर या पंचायत द्वारा माता को पावणी (अतिथि) लाते हैं।
कुल मिलाकर यह संदेश दिया जाता है कि बहन, बेटी को नवमें दिन ससुराल नहीं भेजना चाहिए। दसवें दिन पुनः सपरिवार भोजन प्रसादी आयोजन होता है।
माता का बुचका यानी जिसमें माताजी की समस्त श्रृंगार सामग्री, प्रसाद, भोग एवं आवश्यक वस्तुएं श्रीफल आदि बांध कर पीली चुनरी ओढ़ाकर हंसी-खुशी विदा किया जाता है। यही परंपरा सतत चली आ रही है।