ग्रीष्म की विदाई का मुहूर्त लेकर आया आषाढ़

आषाढ़ में रहेगा बारिश का मुहूर्त

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सुहाना है धरती का गात
सूर्य की गर्मी भी कम है
सांस में चलने का दम है
फूल से कहता कोमल पात
आज तो खिलने का दिन है
आज कुछ लिखने का दिन है

सच, आज खिलने और कुछ लिखने का ही दिन है। आषाढ़ जो आ गया। कुछ मौसम और दिन होते ही ऐसे हैं, जब कलम विचारों के रंग में घुलकर कुछ लिखने को बेकरार हो उठती है। आषाढ़ के दिन, ग्रीष्म की विदाई का मुहूर्त लेकर आता है।

चातक के प्रिय जीवनधर 'मेघदूत' की सजल कल्पना को साकार करने के लिए विरहों के इंतजार का मास आषाढ़ ने हौले से धरा पर अपने कदम बिना आहट रख दिए हैं, अब तो इंतजार है बस- बरस बदरवा, और सुना दे अपना राग। बादलों तुम्हारा उठना, उसी मंद्र सप्तक की तरह हो, जैसे- आजा धीरे-धीरे ओ बदरिया और रिझा बहार गाकर, या सुना 'मल्हार' गाकर कुछ ऐसे : -

आषाढ़ बनकर ही अधर के पास आना चाहता हूं
मैं तुम्हारे प्राणों का उच्छवास पाना चाहता हूं
' चैती' गाकर चैत्र से शुरू ऋतुसार का किशोरपन है

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आषाढ़ माह का पहला दिन धरती और अंबर का मिलन दिवस माना जाता है। सच कहें तो फागुन के बाद और सावन से पहले लड़कपन और यौवन का कुछ-कुछ अंश लिए आषाढ़ ही जीवन की उन वास्तविकताओं को उकेरता है, जिसमें तपकर मनुष्य का जीवन उद्देश्य प्राप्त करता है।

थोड़ी-सी कसक लिए मौसम की गर्मी और कुछ ठसक लिए साल के बौछार की पहली फुहार न केवल यथार्थ के दो भिन्न पहलुओं को चित्रित करती है, बल्कि जीवन के कैनवास पर विचारों के एक्रेलिक रंगों से 'पुनर्मिलन' के मुहूर्त को सजाती है।

यही तो वह दिन है जब 'जेष्ठ की रोहिणी' की तप्तता को मृग की बौछार संतृप्त कर देती है और प्रकृति हरीतिमा से सुभाषित होकर मानवीय जीवन में न केवल आशा का संचार करती है, बल्कि 'धरांबर' की दूरियों को नजदीकियों से समेटकर कालीदास की कल्पना को साकार भी करती है।

प्रेम की एक पूरी कविता है आषाढ़ का माह। जब प्रेम का साक्षात स्वरूप अपनी प्रिया से बिछोह के पल अकेले में गुजारता है। यहां आषाढ़ में 'प्रेम' के स्वर और इम्तिहान दोनों दिखाई पड़ते हैं।

यूं तो पूरे गर्मी में धूप और बादलों में द्वंद्व चलता रहा, नौतपा के आसपास तूफानी हवाओं, सावनी घटाओं और भादों की बारिश का रंग नजर आया। बादलों का साथ पाकर लू के थपेड़ों के बीच हवाएं बौरातीं और इतराती रहीं, लेकिन ग्रीष्म में बिन बुलाए मेहमान की तरह आने और अपनी करने वाले इन बादलों को अब अपना रूप दिखाना होगा।

वैसे बीते कुछ वर्षों में आषाढ़ दगाबाज हो गया है। कभी-कभी वह सहमा हुआ भी लगता है, पर उसकी दगाई और सहमने में कहीं हम भी हिस्सेदार हैं। शहरी जीवन और उसकी जरूरतों ने प्रकृति के साथ उस पर भी बहुत अत्याचार किए हैं, उसकी अगवानी के रास्तों को बंद कर दिया है।

आषाढ़ के आगाज के दिन केवल प्रकृति के सौंदर्य भर को देखने से कुछ नहीं होगा। उसको बढ़ाने, उसके अनुरूप बनने, रसास्वादन करने लायक खुद को बनाने का संकल्प भी करना होगा। आषाढ़ी उत्सव पर यही कामना करें कि प्रकृति ही नहीं जीवन में भी प्रियतम और आषाढ़ साथ-साथ आएं। तब देखना आषाढ़ का यह रंग बहुत खूब होगा, बहुत हसीन भी होगा।

- प्रकाश कुण्डलकर

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