परशुराम की पितृभक्ति अमर रहेगी

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- आचार्य पं. रामचन्द्र शर्मा 'वैदिक'

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भगवान परशुरामजी का आविर्भाव बैसाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। यह पवित्र तिथि परशुराम जयंती के नाम से सुप्रसिद्ध है। अक्षय तृतीया सनातन धर्मियों का प्रमुख त्योहार है। इस दिन नर-नारायण, भगवान परशुराम और हयग्रीव जैसे महान अवतार हुए थे। इसी दिन त्रेतायुग भी प्रारंभ हुआ था। अक्षय तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर अर्थात प्रदोष काल में भगवान परशुराम अवतरित हुए थे।

परशुराम ऋचीक के पौत्र और जमदग्नि के पुत्र थे। इनकी माता का नाम रेणुका था। भगवान परशुराम श्री विष्णु के आवेश अवतार माने जाते हैं। ये शंकरजी के परमभक्त थे। आपका वास्तविक नाम राम था किंतु परशु धारण करने से राम- परशुराम के रूप में विख्यात हुए। आशुतोष भगवान शिव की इन पर परम कृपा थी। भगवान शिव से इन्होंने एक अमोघास्त्र प्राप्त किया था जो परशु नाम से प्रसिद्ध है।

परशुरामजी की पितृभक्ति अमर है। पुराणादि धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में वर्णन प्राप्त होता है कि इनकी माता रेणुका से जाने-अनजाने में कोई अपराध हो गया था। पिता श्री जमदग्नि को जब रेणुका के अपराध की जानकारी प्राप्त हुई तो वे अत्यंत क्रोधित हुए तथा अपने पुत्रों को आज्ञा दी कि रेणुका का सिर काट डालो। स्नेहवश पुत्र ऐसा न कर सके। लेकिन परशुराम ने माता तथा भाइयों का सिर पिताश्री की आज्ञानुसार काट डाला।
  परशुराम ऋचीक के पौत्र और जमदग्नि के पुत्र थे। इनकी माता का नाम रेणुका था। भगवान परशुराम श्री विष्णु के आवेश अवतार माने जाते हैं। ये शंकरजी के परमभक्त थे। आपका वास्तविक नाम राम था किंतु परशु धारण करने से राम- परशुराम के रूप में विख्यात हुए।      


पिता अपने पुत्र की पितृभक्ति से अत्यंत प्रसन्न हुए, उन्होंने पुत्र से वर माँगने को कहा- परशुराम ने कहा- पिताश्री यह वर प्रदान करें कि मेरी माता तथा भाई पुनः जीवित हो उठें तथा उन्हें मेरे द्वारा वध किए जाने की स्मृति न रहे और मैं निष्पाप होऊँ। पिता जमदग्नि ने तथास्तु कहा। माता तथा सभी भाई पुनर्जीवित हो उठे।

महिष्मती में सहस्रार्जुन से घमासान युद्ध का वर्णन भी धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में प्राप्त होता है। सहस्रार्जुन की सहस्र भुजाएँ परशु से काट डालने तथा उसका सिर धड़ से अलग करने की घटना अत्यंत रोमांचकारी है। परशुरामजी अपने इस वीरोचित कार्य से स्वयं प्रसन्न थे किंतु पिताश्री नहीं। इस घटना को लेकर जमदग्नि ने परशुराम से कहा कि वत्स चक्रवर्ती सम्राट का वध ब्रह्म हत्या के समान है। उन्होंने उपदेश दिया कि ब्राह्मणों का सर्वापरि धर्म क्षमा है। तुमने धर्मनीति का उल्लंघन किया है। अतः तुम्हें प्रायश्चित करना होगा। प्रायश्चित स्वरूप परशुराम एक वर्ष तक विभिन्न तीर्थों की यात्रा कर पुनः आश्रम लौटे, तब माता-पिता ने उन्हें आशीर्वाद प्रदान किया।

सहस्रार्जुन की मृत्यु के पश्चात उनके पुत्रों में प्रतिशोध की भावना जागृत हुई और उन्होंने छद्म वेश में जमदग्नि आश्रम में महर्षि का मस्तक काट डाला और मस्तक लेकर भाग खड़े हुए। इस कृत्य से भगवान परशुराम अत्यंत क्रोधित हुए और उन्होंने तत्काल यह प्रतिज्ञा की कि मैं संपूर्ण पृथ्वी को क्षत्रियविहीन कर दूँगा।

तत्काल परशुराम महिष्मती पहुँचे और उन्होंने सहस्रार्जुन के दस हजार पुत्रों तथा क्षत्रियों का संहार कर डाला। पुराणों तथा महाभारत के आदि पर्व में उल्लेख प्राप्त होता है कि उन्होंने 21 बार क्षत्रियों का संहार किया। ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वी क्षत्रियशून्य हो गई।

परशुरामजी ने अपने पिता के मस्तक को आश्रम में धड़ से जोड़ा, उनकी अंत्येष्टि संपन्न की। कुरुक्षेत्र में 5 कुंडों का निर्माण कर पितृ तर्पण किया। आगे जाकर ये पाँचों कुंड समन्तपंचक तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुए। पितरों ने उन्हें क्षत्रिय कुल नाश के पाप से मुक्त होने का वरदान दिया। पितृ आज्ञा से भगवान ने समस्त भूमंडल प्रजापति कश्यप को दान में दे दिया और स्वयं वीतराग होकर महेन्द्राचल पर्वत पर तपस्या करने चले गए। ऐसा अग्निपुराण में भी उल्लेख है।

भगवान परशुराम की शिव-धनुष भंग कथा भी प्रसिद्ध है। महेन्द्राचल पर्वत से भगवान जनकपुर गए और वहाँ से तपस्या के लिए महेन्द्रगिरि जाने का वर्णन भी पुराणों में है। भगवान ने तपस्या द्वारा परमसिद्धि प्राप्त की। वे आजीवन ब्रह्मचारी रहे। भगवान परशुरामजी ने परशुराम कल्पसूत्र की रचना की जिसमें देवी त्रिपुरा की महिमा एवं पूजा विधि का उल्लेख मिलता है। इसके साथ ही त्रिपुरा रहस्य माहात्म्यखंड में भगवान ने श्री दत्तात्रयजी से त्रिपुरादेवी चरित्र तथा आराधना विधि प्राप्त कर उसे सौ अध्यायों में निबद्ध किया है। इसे ललितोपाख्यान नाम से भी जाना जाता है। महेन्द्राचल से मुंबई तक का क्षेत्र परशुराम क्षेत्र के नाम से पुराणों में प्रसिद्ध है।
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