॥ परशुराम स्तुतिः ॥

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कुलाचला यस्य महीं द्विजेभ्यः प्रयच्छतः सोमदृषत्त्वमापुः।

बभूवुरुत्सर्गजलं समुद्राः स रैणुकेयः श्रियमातनीतु॥।1॥

नाशिष्यः किमभूद्भवः किपभवन्नापुत्रिणी रेणुका

नाभूद्विश्वमकार्मुकं किमिति यः प्रीणातु रामत्रपा।

विप्राणां प्रतिमंदिरं मणिगणोन्मिश्राणि दण्डाहतेर्नांब्धीनो

स मया यमोऽर्पि महिषेणाम्भांसि नोद्वाहितः॥2॥

पायाद्वो यमदग्निवंश तिलको वीरव्रतालंकृतो

रामो नाम मुनीश्वरो नृपवधे भास्वत्कुठारायुधः।

येनाशेषहताहिताङरुधिरैः सन्तर्पिताः पूर्वजा

भक्त्या चाश्वमखे समुद्रवसना भूर्हन्तकारीकृता॥3॥

द्वारे कल्पतरुं गृहे सुरगवीं चिन्तामणीनंगदे पीयूषं

सरसीषु विप्रवदने विद्याश्चस्रो दश॥

एव कर्तुमयं तपस्यति भृगोर्वंशावतंसो मुनिः

पायाद्वोऽखिलराजकक्षयकरो भूदेवभूषामणिः॥4॥

॥ इति परशुराम स्तुतिः ॥

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