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- आशुतोष दीक्षित
जरथुस्त्री (पारसी) धर्म का ठीक-ठीक इतिवृत्त तथ्य और साक्ष्यों के आधार पर उपस्थित करने में काफी कठिनाई है। स्वयं धर्म प्रवर्तक जरथुस्त्र के समय के निर्धारण को लेकर मतभेद हैं, फिर भी यह कहा जा सकता है कि सिकंदर से बहुत पूर्व जरथुस्त्री धर्म अपने पूर्ण विकास को प्राप्त हो चुका था, क्योंकि सिकंदर से योरप का इतिहास प्रारंभ होता है।

फारस पर सिकंदर के हमले के प्रभाव के कारण जरथुस्त्री धर्म के सारे धर्म ग्रंथ नष्टप्रायः हो गए थे।

कुछ भी हो, पारसी धर्म के मूल प्रवर्तक जरथुस्त्र थे एवं उनके बताए मार्ग को ही जरथुस्त्री धर्म कहा जाता है। स्वयं जरथुस्त्र ने किसी नए धर्म के स्थापना की चेष्टा नहीं की, लेकिन पूर्व प्रचलित सिद्धांतों को नई रूपरेखा देने की ही चेष्टा की थी। जरथुस्त्र का जीवन ऐतिहासिक है एवं व्यक्तित्व अलौकिक। संसार के महान पुरुषों और धर्म प्रवर्तकों में उनका एक विशिष्ट स्थान है।

बचपन में उनका नाम स्पितमान था। जैसे राजकुमार वर्द्धमान घोर तपस्या के कारण महावीर व राजकुमार गौतम बोधि लाभ से बुद्ध कहलाए, उसी तरह स्पितमान भी समाधि द्वारा प्राप्त दिव्य क्रांति के कारण जरथुस्त्र कहलाए। जरथुस्त्र का अर्थ है स्वर्ण के समान कांतिमान।

ये प्रेम और दया की साक्षात मूर्ति थे। समाधि से निवृत्त होकर रोगी की परिचर्या करना, भारपीड़ित पशु का बोझ स्वयं ढोना, वृद्धों को सहारा देना, दृष्टिहीन को मार्ग बताना, भूखे को भोजन और प्यासे को पानी पिलाना इनकी दिनचर्या थी।

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जरथुस्त्र के देहांत के बाद उनका प्रभाव धीरे-धीरे फैला। सारे ईरान में यह राज्यधर्म बना। इसके अतिरिक्त रूस, चीन, तुर्किस्तान, आरमेनिया एवं हिन्दुकुश तक इसका थोड़ा-थोड़ा प्रभाव अवश्य रहा है।

विश्व के अन्य भागों में ईरानी सभ्यता का प्रभाव जरथुस्त्र से पहले ही था। इसलिए जब ईरान में जरथुस्त्री धर्म राज्यधर्म बना तो ईरानी सभ्यता के संपर्क वाले देशों में इसका प्रकारांतर प्रभाव अवश्यंभावी था। सिकंदर के हमले के समय इस धर्म का धार्मिक साहित्य पूर्ण आभा में था। पार्सीपोलिस एवं समरकंद में इन ग्रंथों को बहुत सज-धज से सुरक्षित रखा गया था।

अरबी राज और हलाकू, तैमूर एवं नादिर शाह के हमलों के समय इस धर्म के अनुयायियों पर भयंकर अत्याचार हुए। इन अत्याचारों के फलस्वरूप जरथुस्त्री धर्म का प्रचार सातवीं शताब्दी से कम होना शुरू हुआ। सन्‌ 750 में अंतिम जरथुस्त्री राजा को अरबों द्वारा युद्ध में हरा दिया गया। इसके बाद जरथुस्त्री पंथ के बहुत बड़े फिरके ने देश का परित्याग कर भारत की ओर प्रयाण किया, जहाँ वे पिछले 1200 वर्षों से शांतिपूर्ण जीवन बिता रहे हैं।

पहले वे कृषि कार्य में संलग्न थे। बाद में इन लोगों ने शिक्षा एवं उद्योग की ओर ध्यान दिया और फलस्वरूप आज भारत में शिक्षा एवं उद्योग की दृष्टि से पारसी समुदाय उन्नात है। भारत के पारसियों के अतिरिक्त ईरान के कुछ शहरों में भी जरथुस्त्री धर्मानुयायी हैं। वहाँ उन्हें अत्यंत भयंकर अत्याचारों का सामना करना पड़ा है। इस पर भी इन लोगों ने तूफान एवं दीये की कहानी की तरह अपने धर्म के दीप को टिमटिमाता हुआ रखा है।
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