पारसियों में धर्म-परिवर्तन स्वीकार्य नहीं

फीकी पड़ती दूध की मिठास

Webdunia
- स्नेह मधु र
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पारसी समुदाय का रहन-सहन अंग्रेजियत से भरपूर है लेकिन अपने धार्मिक पूर्वाग्रहों और खास जीवनशैली की वजह से वे अपनी संख्या में वृद्धि नहीं कर पाए। पारसी समुदाय करीब एक हजार साल पहले भारत आया। पहली बार गुजरात के बंदरगाह पर उतरकर भारत की धरती पर कदम रखा।

ईरान में उन पर अरब के हमलावरों ने आक्रमण कर उन्हें अपनी जान और संस्कृति बचाकर भागने पर मजबूर किया था। कहा जाता है कि जब वे गुजरात पहुँचे और राजा जादव राणा से शरण माँगी तो उन्होंने इनकार कर दिया। एक-दूसरे की भाषा से अनजान गुजराती और पारसी संकेतों की भाषा में ही बात कर सकते थे।

वजीर ने पारसियों के सरदार के सामने दूध से भरा हुआ लोटा रखकर यह बताने की कोशिश की कि उनके पास उन्हें शरण देने की जगह नहीं है। पारसियों के मुखिया ने दूध के लोटे में चीनी डालकर यह समझाने की कोशिश की कि जिस प्रकार दूध में चीनी घुल-मिल जाती है उसी प्रकार वे भी गुजराती समुदाय में घुल-मिल जाएंगे। राजा उनके तर्क से प्रभावित हुए और उन्हें शरण दे दी।

पारसियों ने इस देश को बहुत कुछ दिया लेकिन अपने लिए कुछ माँगा नहीं। हमारे देश को टाटा, बलसारा और गोदरेज ने क्या दिया यह बताने की जरूरत नहीं है लेकिन अत्यंत सीधे और रूढ़िवादी होने के कारण वे अपना अस्तित्व बचाए रखने में सफल नहीं हो पा रहे हैं। पूरे देश में पारसी समुदाय आज सबसे छोटा अल्पसंख्यक समुदाय हो गया है। कारण कि जिस प्रकार दूसरे अल्पसंख्यक अपनी जनसंख्या वृद्धि के प्रति जागरूक हैं, पारसियों ने उस तरफ ध्यान नहीं दिया है।

वैसे चाहते वे भी हैं कि उनकी संख्या बढ़े लेकिन उनकी रूढ़ियाँ उनकी राह में बाधा बन गई हैं। पारसी समुदाय की संख्या जिस तरह कम हो रही है, वह डराने वाली है। पूरे विश्व में पारसियों की संख्या मात्र एक लाख बची है। वर्ष 2001 के सर्वेक्षण के अनुसार भारत में पारसियों की संख्या मात्र 69,601 है। उत्तर प्रदेश में तो केवल छह सौ पारसी बचे हैं, जिनमें से लखनऊ में सबसे अधिक लगभग 52, इलाहाबाद में 24, आगरा में 16 और कानपुर में कुल 44 पारसी हैं।

जिस तरह से छोटे शहरों से महानगरों और विदेशों की तरफ पारसियों की नई पीढ़ी का पलायन हो रहा है उससे ऐसा लगता है कि एक दशक में उत्तर प्रदेश पारसीविहीन प्रदेश बन जाएगा। पारसियों की सबसे अधिक संख्या मुंबई, दिल्ली और गुजरात में है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1911 में पारसियों की संख्या 94,910 थी जो 1941 तक बढ़कर 1,11,791 हो गई थी लेकिन फिर इसमें गिरावट आनी शुरू हुई और 2001 में यह संख्या 69,601 तक पहुँच गई।

पारसी समुदाय का रहन-सहन अंग्रेजियत से भरपूर है लेकिन अपने धार्मिक प्रतिबंधों और जीवनशैली की वजह से वे अपनी संख्या में वृद्धि नहीं कर पाए। एक तो विवाह उनकी अनिवार्यता में शुमार नहीं रह गया है। लगभग हर घर में कम से कम एक कुँवारा या कुँवारी जरूर मिल जाएगी। दूसरे, वे बच्चों को अच्छी तालीम देने के लिए छोटे परिवार में विश्वास रखते हैं। तीसरे, उनके परिवार का कोई सदस्य यदि अंतर्जातीय विवाह कर ले तो उसे बिरादरी से बाहर कर दिया जाता है।

इलाहाबाद पारसी जुराष्ट्रियन अंजुमन के अध्यक्ष रुस्तम गाँधी कहते हैं कि हमारी जनसंख्या का कम होने का सबसे बड़ा कारण हमारे बच्चों का अच्छी और उच्चतम शिक्षा प्राप्त होना है। वे भी अपनी बराबरी और हैसियत वालों से शादी करना चाहते हैं। यही नहीं, अगर कोई लड़का-लड़की बिरादरी से बाहर शादी करता है तो उसे धर्म से बाहर मान लिया जाता है, इस मामले में पारसी बहुत कट्टर हैं।

पारसियों में धर्म-परिवर्तन स्वीकार्य नहीं है। कोई हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई बन सकता है लेकिन पारसी नहीं बन सकता। पारसी जन्म से ही हो सकता है। क्या राहुल गांधी पारसी हैं? इस सवाल के जवाब में रुस्तम गाँधी कहते हैं कि वह अपने आप को पारसी मान सकते हैं, लेकिन जुराष्ट्रियन नहीं कहला सकते। हम अग्नि के माध्यम से ही अपने इष्टदेव की पूजा करते हैं।

पारसियों की घटती जनसंख्या ने खुद पारसी बिरादरी को भी चिंतित कर दिया है। पारसी सांप्रदायिक नहीं होते और हर धर्म को मानने वालों का सम्मान करते हैं, साथ ही उनके यहाँ लड़कियों को भी बराबरी का दर्जा हासिल है, कोई किसी महिला को अपमानित करने के बारे में सोच भी नहीं सकता लेकिन तमाम अच्छाइयाँ लेकर भी पारसी अपने आप को बचा नहीं पा रहे हैं।

भारत की जनसंख्या में

पारसी : 69 हजार
जैन : 42 लाख
बौद्ध : 79 लाख
सिख : 1.9 करोड़
ईसाई : 2.4 करोड़
मुस्लिम : 13.8 करोड़

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