आपने कहीं नहीं पढ़ी होगी कुंभ महापर्व ये 3 पौराणिक कथाएं....

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* कुंभ महापर्व की कथाएं

- डॉ. बिन्दूजी महाराज 'बिन्दू' 

 
कुंभ- अर्थात कलश (घड़ा)! जी हां, कुंभ का अर्थ यही होता है और इस कुंभ नामक महापर्व की कथा भी कलश से ही जुड़ी हुई है। फर्क सिर्फ इतना ही है कि इस कथा का पात्र साधारण कलश न होकर अमृत कलश है और इसी अमृत कलश की पृष्ठभूमि है यह कुंभ महापर्व।
 
कुंभ महापर्व सहस्रों वर्ष पूर्व घटित एक विशिष्ट घटना की स्मृति में आयोजित किए जाने वाले विशिष्ट, आध्यात्मिक उत्थान के अनुष्ठानों का महायोग है। विष्‍णुपुराण तथा विष्णुयाग आदि ग्रंथों के अनुसार गोविंद द्वादशी (पुष्य नक्षत्र से युक्त फाल्गुन शुक्ल द्वादशी), गजच्छाया योग (अमावस्या के अंत में जब राहु सूर्य को ग्रस लेता है), वारूणी पर्व (शत् भिषा नक्षत्र से युक्त चैत्र कृष्ण त्रयोदशी), महा-महावारूणी पर्व (शुम योग एवं शनिवार के सहित शत् भिषा नक्षत्रयुक्त चैत्र कृष्ण त्रयोदशी) और विषुभ व्यतिपात इत्यादि पर्वों जैसा ही ग्रहों का योग विशेष ही कुंभ पर्व के नाम से विख्यात है। कुंभ का वेदों में भी उल्लेख है, यथा- 
 
चतुर: कुम्भांश्चतुर्धा ददामि क्षीरेण पूर्णान् उद्केन्दध्ना।
एतास्त्वाधारा उपयान्तु सर्वा:।।
पूर्ण: कुम्भोऽधिकाल आहितस्तं वै पश्यामो बहुधा न सन्त:।
स इमां विश्वा भुवनानि प्रत्यकालं तमाहु: परमे व्योमन।।
 
कुंभ पर्वों आदि के विषय में विभिन्न पुराणादि ग्रंथों में तीन भिन्न कथाओं का उल्लेख हमें प्राप्त होता है, जो कि निम्नवत् हैं-
 
क) कुंभ पर्व की पहली कथा-इस कथा में बताया गया है कि एक बार महर्षि दुर्वासा किसी बात से प्रसन्न होकर देवराज इंद्र को एक दिव्य शक्तियों से युक्त माला प्रदान करते हैं किंतु देवराज इंद्र ने उस माला को तुच्‍छ समझकर उसे अपने हाथी ऐरावत के मस्तक पर रख दिया। ऐरावत ने उस माला को अपनी सूंड से नीचे खींचकर पैरों तले कुचल डाला जिसे ऋषिराज दुर्वासा ने अपना अपमान समझा और देवराज इंद्र को 'श्री' हीन होने का भयंकर श्राप दे डाला। दुर्वासा के श्राप के कारण संपूर्ण बह्मांड में हाहाकार मच गया। अनावृष्टि और दुर्भिक्ष से प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठी। तब श्रीमन्नारायण की कृपा से समुद्र मंथन की प्रक्रिया द्वारा लक्ष्मीजी का प्राकट्य हुआ। फलत: वृष्टि होने लगी और संसार का कष्ट दूर हुआ। इसी कथा में अमृत का भी उल्लेख है जिसे असुरों ने नागलोक में छिपा दिया और गरुड़ ने अमृत को वहां से बचाकर क्षीरसागर तक पहुंचाया। क्षीरसागर तक पहुंचाने में गरुड़ ने जिन-जिन स्थानों तक अमृत कलश रखा, वहां-वहां कुंभ पर्व मनाया जाने लगा।

 
ख) कुंभ पर्व की दूसरी कथा- कुंभ पर्व की दूसरी कथा प्रजापति कश्यप की पत्नियों 'कद्रू' और विनता के बीच हुई तकरार से संबद्ध है। कथा कुछ इस प्रकार है- एक बार प्रजापति कश्यप की पत्नियों कद्रू और विनता के बीच सूर्य के अश्व (घोड़े) काले हैं या सफेद, विषय को लेकर विवाद छिड़ गया। विवाद ने प्रतिष्ठा का रूप ले लिया और शर्त लग गई कि जिसकी बात झूठी निकलेगी, वह दासी बनकर रहेगी। कद्रू के पुत्र थे 'नागराज वासुकि' और विनता के पुत्र थे 'वैनतेय गरुड़'। कद्रू ने विनता के साथ छल किया और अपने नागवंश को प्रेरित करके उनके कालेपन से सूर्य के अश्वों को ढंक दिया। फलत: विनता शर्त हार गई और उसे दासी बनकर रहना पड़ा। दासी के रूप में अपने को असहाय संकट से छुड़ाने के लिए विनता ने अपने पुत्र गरुड़ से कहा तो गरुड़ ने कद्रू से उपाय पूछा। उपाय बताते हुए कद्रू ने कहा कि यदि नागलोक में वासुकि से रक्षित 'अमृत कुंभ' जब भी कोई लाभ देगा, तब मैं विनता को दासत्व से मुक्ति दे दूंगी।

 
कद्रू के मुख से उपाय सुनकर स्वयं गरुड़ ने नागलोक जाकर वासुकि से अमृत कुंभ अपने अधिकार में ले लिया और अपने पिता कश्यप मुनि के उत्तराखंड में गंध मादन पर्वत पर स्थित आश्रम के लिए वे चल पड़े। उधर वासुकि ने देवराज इंद्र को अमृत हरण की सूचना दे दी। 'अमृत कुंभ' को गरुड़ से छीनने के लिए देवराज इंद्र ने गरुड़ पर चार बार हमला किया जिससे मार्ग में पड़ने वाले स्थलों- प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यम्बकेश्वर (नासिक) में कलश से अमृत छलककर गिर पड़ा। कहीं-कहीं कथा भेद से उल्लेख है कि गरुड़ द्वारा 'अमृत कलश' चोंच मे पकड़े हुए होने के कारण अमृत छलककर (विश्राम के क्षणों में) गिरा। उक्त चारों स्थलों पर अमृतपात् की स्मृति में कुंभ पर्व मनाया जाने लगा।

 
देवासुर संग्राम की जगह इस कथा में गरुड़-नाग संघर्ष प्रमुख हो गया और जयंत की जगह इंद्र स्वयं सामने आ गए। यह कहना कठिन है कि कौन सी कथा अधिक विश्वसनीय और प्रामाणिक है। पर व्यापक रूप से समुद्र मंथन की तीसरी कथा को अधिक महत्व दिया जाता है और इसी तीसरी कथा को ही पौराणिक पृष्‍ठभूमि में सर्वोपरि स्‍थान मिला है। देवासुर संघर्ष, जिसका रूप समुद्र मंथन की कथा से स्पष्ट हो जाता है। ऐसी लालित्य और अर्थपूर्ण कथा विश्व साहित्य में अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलती है। देवताओं और असुरों की प्रवृत्ति का जितना परिचय इससे मिलता है, उतना किसी और कथा से नहीं। कुंभ पर्व प्रवचन की सर्वाधिक लोकप्रिय कथा इस प्रकार है- 
 
ग) कुंभ पर्व की तीसरी कथा- कुंभ पर्व की उत्पत्ति के संबंध में मान्यता है कि जब दैवी और आसुरी इन दोनों प्रवृत्तियों का युद्ध हो रहा था अर्थात दोनों सभ्यताओं और विचारों के बीच संघर्ष छिड़ा था तब येन-केन-प्रकारेण दोनों प्रवृत्तियों का समन्वय कराने के लिए 'समुद्र मंथन' का आयोजन किया गया। दोनों दलों के प्रमुखों ने परस्पर विचार-विमर्श के बाद यह निश्चय किया कि हम लोग त्रयलोक का चप्पा-चप्पा तो देख चुके हैं और ऐसी कोई वस्तु नहीं है जिसे हम लोगों ने उपभोग न किया हो। केवल सागर ही हमारे अन्वेषण में शेष है। समस्त भूमंडल को घेरे हुए रत्नाकर नाम से विख्यात असीम जलराशि के अधिपति सागर में अनेक अमूल्य रत्न तथा अमरत्व प्रदान करने वाला अमृत दबा हुआ है।
 
विलक्षण शक्ति वाले देव और दानवों में अमृत प्राप्ति की सुखद कल्पना को लेकर अदम्य उत्साह था किंतु समुद्र में खोज और अमृत प्राप्ति कोई साधारण कार्य नहीं था। बड़े विचार-विमर्श के पश्चात समुद्र मंथन की योजना तय हुई और पर्वतों के राजा मदरांचल को मथानी बनने हेतु तथा नागराज वासुकि को रस्सी के रूप में कार्य करने हेतु राजी किया गया।
 
पर्वतराज मंदराचल को मथानी और नागराज वासुकि को रस्सी बनाकर समुद्र मंथन का कार्य आरंभ हो गया। नागराज वासुकि के फन (मुख) की ओर दानव और पूंछ की ओर देवगण लगे। दोनों अपार उत्साह के साथ समुद्र को मथने में जुटे हुए थे। मंथन की भीषणता से तीनों लोक कांप रहे थे। सागर के जीव-जंतु तथा स्वयं सागर की दुर्गति तो अकथनीय थी। मंदराचल फिसलकर डूब न जाए इसलिए स्वयं भगवान विष्णु कच्छप (कछुए) का रूप धारण कर मदरांचलरूपी मथानी को आधार दिए हुए थे।

जैसा कि अटल सत्य है कि- संगठन के आगे सभी को झुकना पड़ता है, वैसे ही देव-दानवों की संगठनात्मक शक्ति के आगे रत्नाकर को झुकना पड़ा और अन्यान्य 14 रत्नों (1. पुष्पक विमान, 2. ऐरावत हाथी, पारिजात वृक्ष, 4. रम्भा आदि अप्सराएं, 5. कौस्तुभ मणि, 6. बाल चंद्रमा, 7. पाञ्चजन्य शंख, 8. शाङ्र्ग धनुष, 9. लक्ष्मी, सुरूपा, सुशीला तथा सुरभि नामक 5 गायें, 10. उच्चैश्रवा नामक घोड़ा, 11. भगवती लक्ष्मी, 12. देवश्रेष्ठ वैद्यराज धन्वंतरि, 13. निर्माण कला विशारद विश्वकर्मा, 14. स्वर्णमय अमृत कलश) के साथ क्रमश: अमृत कलश भी बाहर आ गया। (अमृत कलश से पूर्व हलाहल विष का कलश भी बाहर आया था जिसकी भयानकता से तीनों लोक दहल गए थे। तब भगवान भूतेश्वर ने हलाहल विष का पान करके त्रिलोक की रक्षा थी)।

 
अमृत प्राप्ति से चारों ओर प्रसन्नता का वातावरण छा गया। देवों और दानवों का श्रम सफल हुआ। अब वे अपनी-अपनी थकान भूलकर 'अमृत कलश' हड़पने की कूट चाल सोचने लगे। इसी बीच देवराज इंद्र ने अपने पुत्र जयंत को अमृत लेकर भागने का इशारा किया। जयंत को अमृत कलश लेकर भागता देख दानवों को देवताओं की चाल समझते देर नहीं लगी और परिणामस्वरूप देव और दानवों में पुन: भयंकर संग्राम छिड़ गया। यह संग्राम देवताओं के 12 दिन अर्थात मनुष्यों के 12 वर्ष तक चला। इन 12 वर्षों मे भीषण संग्राम में जयंत 4 स्थानों में दानवों की पकड़ में आ गया था। आपसी संघर्ष और छीना-झपटी में अमृत की कुछ बूंदें कलश से इन 4 स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यम्बकेश्वर) पर छलक पड़ीं। अमृत छीनने में दानवों ने अपनी संपूर्ण शक्ति लगा दी थी किंतु देवताओं के संगठन और कूट चालों ने उन्हें सफल नहीं होने दिया। देवों में सूर्य, चंद्र और गुरु का अमृत कलश की रक्षा में विशेष योगदान रहा। चंद्र ने कलश को गिरने से और सूर्य ने फूटने से तथा गुरु (बृहस्पति) असुरों के हाथों में जाने से बचाया था।
 
 
चंद्र प्रतन्नवणाद् रक्षां सूर्यों विस्फोटनाछसौ।
दैत्यैभ्यश्च गुरुं रक्षां सौरि देवेन्द्रजाभ्दयात्।।
 
यही कारण है कि इन तीनों ग्रहों की विशिष्ट स्थिति तथा इन्हीं चारों तीर्थों में जहां अमृत बूंदें गिरी थीं, वहां कुंभ पर्व मनाए जाने की परंपरा है।
 
प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यम्बकेश्वर (नासिक) ही वे चारों स्थल हैं, जहां अमृत बूंदें गिरी थीं और अमृत के प्रताप से इन चारों तीर्थों की नदियां- गंगा, यमुना, सरस्वती, शिप्रा और गोदावरी अमृतमयी हो गई हैं।
 
समुद्र मंथन के पश्चात आरंभ हुए इस भीषण संग्राम को समाप्त करने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया और छल से देवताओं को अमृत और दैत्यों को विषपान करा दिया था। समुद्र मंथन की इस कथा से स्पष्ट है कि अमृत कलश के संरक्षण में सूर्य, चंद्र तथा बृहस्पति (गुरु) का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अत: इन ग्रहों के उसी विशिष्ट योग के अवसर पर आने से कुंभ पर्व मनाने की परंपरा है।

साभार- कुंभ महापर्व और अखाड़े (एक विवेचन)
 
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