सिर्फ धागे का रिश्ता नहीं है राखी

Webdunia
- सतमीत कौ र

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बात उस समय की है जब मैं आज से 6 साल पहले ट्रेन में पंजाब जा रही थी। मेरी खुशी का कोई ‍िठकाना नहीं था क्योंकि मैं पंजाब घूमने के लिए जा रही थी। खुशी के मारे रास्ता और लंबा सा महसूस हो रहा था। मन तो एक जगह टिकने का नाम ही नहीं ले रहा था,यही सोच रही थी वहाँ कहाँ-कहाँ जाना है ।

जब रास्ते में भोपाल आया तो दो आदमी हमारे सामने वाली सीट पर आकर बैठे। उन में से एक तो काफी बुज़ुर्ग थे और एक मु्झसे लगभग 8 साल बड़े। दोनों पुलिस में थे और पंजाब जा रहे थे, वहीं के रहने वाले थे ।

वो भी सिख और मैं भी सिख तो थोड़ी थोड़ी बात पंजाबी में ही शुरू हुई। फिर तो जैसे हर विचार एक समान ही लगने लगा। ऐसा लगा जैसे पुरानी पहचान हो हमारी। वीरजी इतनी विनम्रता से मुझसे बात कर रहे थे कि उनसे प्रभावित होना स्वाभाविक था।
  बात उस समय की है जब मैं आज से 6 साल पहले ट्रेन में पंजाब जा रही थी। मेरी खुशी का कोई ‍िठकाना नहीं था क्योंकि मैं पंजाब घूमने के लिए जा रही थी। खुशी के मारे रास्ता और लंबा सा महसूस हो रहा था। मन तो एक जगह टिकने का नाम ही नहीं ले रहा था,यही सोच रही थी।      


रात हो गई। मुझे तो उत्सुकता की वजह से नींद ही नहीं आ रही थी। वीरजी भी मुझसे रातभर बात करते रहे।हमने धर्म की और परिवार के बारे में बातें की। सुबह दिल्ली पहुँचने पर वीरजी नाश्ता लेकर आए। अब शुरू से यह बात मन में बैठ चुकी थी कि ट्रेन में किसी से लेकर कुछ नहीं खाना, मैं लगातार मना कर रही थी और वो बार-बार बोल रहे थे कि भाई को खर्चा ना करवाए ऐसी कोई बहन होती है क्या?

खैर अब सफर खत्म हो रहा था। मेरा स्टेशन आ चुका था। वीरजी ने हमारा सामान उठाया और नीचे रख दिया। ऐसा लगा जैसे सच में कोई रिश्तेदार हो । मैंने जाते समय वीरजी को अपना मोबाइल नंबर दिया था, फिर इंदौर आने के बाद लगातार वीरजी के फोन आते रहे ।

एक दिन वीरजी का दोपहर में फोन आया और उन्होने कहा ‘सतमीत, तू बुआ बन गई है, बेटा हुआ है, नाम क्या रखना है बताना ।’ ’ उस दिन अहसास हुआ कि उनके लिए इस रिश्ते का बहुत महत्व है ।

उस के बाद मेरा एक दोस्त पंजाब जा रहा था तो मैंने वीरजी को फोन करके कहा कि अपनी एक फोटो भेज देना, मुझे तो आपका चेहरा भी याद नहीं। वीरजी 100 किमी दूर मेरे दोस्त को फोटो और मेरे लिए दो तोहफे देकर गए ।

अब मैं 6 साल बाद फिर से पंजाब गई तो वीरजी इतने खुश थे, मुझ से भी सफर नहीं कट रहा था। जाते ही वीरजी मुझे लेने आए। उन्होने मुझे र्तीथ स्थान के दर्शन कराए क्योंकि उनका मानना था कि भाई अपनी पहन को तीर्थ पर लेकर ज़रूर जाते हैं ।
दो दिन साथ रहे और जाते समय उन्होने 1500 रूपए दिए जैसे घर आया कोई बड़ा आशीर्वाद स्वरूप छोटे बच्चों के देता है। दो दिन कहाँ निकल गए पता ही नहीं चला ।

सच में उस दिन लगा कि शायद मैंने तो इतनी गहराई से समझा ही नहीं था इस रिश्ते को लेकिन वीरजी मुझे अपनी सगी बहन से ज़्यादा मानते हैं। उनका प्यार उनकी बातों से झलक रहा था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि ट्रेन में मिलने वाला एक व्यक्ति इस कदर रिश्ते को निभाएगा ।

आज मुझे बहुत खुशी है कि मुझे गुरूचरण वीरजी चैसे भाई मिले। हम दोनो अपना हर सुख दुख एक दूसरे से बाँटते हैं। उनसे मिलने के बाद मैं यही सोचती हूँ कि सच में राखी सिर्फ धागे का बंधन नहीं है। असली मायने में तो कोई भी रिश्ता निभाने से ही रिश्ता होता है नहीं तो केवल नाम ही रह जाता है।
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