ऊँची मूँछों वाला भैया!

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- निर्मला भुराड़िया

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' मेरे भैया, मेरे चंदा, मेरे अनमोल रतन तेरे बदले मैं जमाने की कोई चीज न लूँ', इस गाने में भाई के प्रति बहन का प्यार है। 'फूलों का तारों का सबका कहना है एक हजारों में मेरी बहना है' इस गाने में भाई अपनी भावनाएँ अपनी बहन के प्रति व्यक्त कर रहा है। सामान्य हिन्दुस्तानी परिवारों में भाई और बहन का रिश्ता अटूट होता है।

यह मीठा भी होता है, खट्टा-मीठा भी होता है। वे लड़ते-झगड़ते भी हैं, एक भी हो जाते हैं। जब झगड़ा होता है तो बहन को लगता है मम्मी-पापा भाई का पक्ष लेते हैं और भाई को लगता है मम्मी-पापा बहन का पक्ष लेते हैं जबकि मम्मी-पापा के लिए दोनों ही आँखों के तारे होते हैं। एका होते ही भाई-बहन भी यह बात समझ जाते हैं। कुल जमा बात यही कि यह एक अनूठा रिश्ता है।

लेकिन उपरोक्त बात उन परिवारों पर लागू होती है जो सहज, सामान्य, आदर्श परिवार हैं। जिन परिवारों के मुखिया पर सामंतवाद हावी रहता है, जिन परिवारों की रक्त-मज्जा में रूढ़िवाद बहता है, ऐसे परिवारों में भाई और बहन को परिवार द्वारा मिलने वाले बर्ताव में भेदभाव किया जाता है।

कुछ लोग यह भेदभाव खुलकर करते हैं, कुछ लोग बदलते जमाने के हक में दिखना चाहते हैं, मगर जमाने के साथ बदलना नहीं चाहते वे लोग सूक्ष्म तौर पर यह भेदभाव करते हैं।

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वे अपने लड़कों में निरंकुशता विकसित करते हैं और लड़की को नियंत्रण में रखते हैं। स्थिति यहाँ तक आ जाती है कि भाई अपनी बहन का धौंसिया हो जाता है। वक्त आने पर भाई अपनी बहन को टाँग तोड़कर रख देने, फलाँ से मिली तो देख लेने, यहाँ न जाने, वहाँ न जाने जैसी धमकियाँ भी देना शुरू कर सकता है। मूँछ पूरी तरह उगती भी नहीं और वह उन पर ताव देते हुए दीदी का चौकीदार या छोटी बहन का हवलदार हो जाता है।

इन दिनों तथाकथित ऑनर किलिंग की खबरें जोरों पर हैं जिसे डिसऑनर किलिंग या हत्या कहना अधिक उपयुक्त होगा। बहन द्वारा अपनी पसंद से शादी कर लेने पर आहत अहम्‌ भाइयों द्वारा बहन को जीजा सहित कत्ल कर देने की घटनाएँ इक्कीसवीं सदी के प्रजातांत्रिक भारत में जोरों पर हैं।

बहन के ऐसे ही हत्यारे एक भाई के प्रति पिता, चाचा, ताऊ आदि ने 'गर्व' व्यक्त किया है। जाति पंचायतों द्वारा ऐसे पिताओं, भाइयों, जाति पंचों, समाजजनों का समर्थन किया जा रहा है। देश के नेताओं के मुँह में मूँग भरे हैं (वोट भरे हैं) उनके द्वारा ऐसे जघन्य कांडों का जमकर विरोध नहीं किया जा रहा है।

जनता का बहुत बड़ा प्रतिशत भी अपने स्वयं के भीतर रचे-बसे रूढ़िवाद के कारण ऐसे जघन्य कृत्यों का विरोध नहीं कर रहा, बल्कि परंपराओं को तथाकथित रूप से विज्ञानसम्मत बताकर जनप्रवाह को अपने पक्ष में बहाने की कोशिश की जा रही है।

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मगर जनता को भी यह बात समझना चाहिए कि विज्ञान की तुला पर तौलना है तो चीजों को पूरा तौलें अधकचरा नहीं। वे लोग यह बहाना लाए हैं कि सगोत्र विवाह विज्ञानसम्मत नहीं है, मगर यह सच नहीं है। सच तो यह है कि सगोत्र और सपिंड में अंतर है। सगोत्र व्यक्ति हजारों होते हैं उनका आपस में कोई रिश्ता नहीं है।

सपिंड में एक परिवार के लोग आते हैं। आनुवांशिकी वैज्ञानिक जनाब मेंडल के नियम के अनुसार दबे हुए और दंबग जीन (रेसेसिव और डॉमिनेंट जीन्स) का गणित सात पीढ़ियों के आगे लागू नहीं होता।

सच बात तो यह है कि विज्ञान यहाँ सिर्फ बहाना है कोई तथ्य नहीं। तथ्य यह है कि ये वो लोग हैं जो स्त्री को अपनी संपत्ति मानते हैं। रूढ़ियों को निभाने को अपनी नाक का सवाल मानते हैं, क्योंकि लड़कियों द्वारा रूढ़ियाँ तोड़ने से उनकी आज्ञा भंग होती है! आज्ञा भंग इन्हें सगोत्र के सवाल पर ही नापसंद हो ऐसा तो नहीं।

अंतरजातीय विवाह पर, अंतर-सम्प्रदाय विवाह पर, एक ही गाँव में विवाह पर, अपने से नीची (?) जाति में विवाह पर आदि कई मामलों पर ये अपना हक रखना चाहते हैं। कुल जमा बात यही कि युवाओं के सपनों की उन्हें कोई फिक्र नहीं उन्हें तो अपना दंभ, अपना हठ प्यारा है। जमीन की जमींदारी तो खत्म हो गई लेकिन बहनों, बेटियों की जमींदारी वे अब तक कर रहे हैं।

समाज, पुलिस, नेताओं, मीडिया सबको इन युवाओं के हक में आगे आना चाहिए जो बालिग हैं और एक प्रजातांत्रिक देश में अपने जीवन के निर्णय स्वयं लेने का हक रखते हैं। जिनके माता-पिता उदार विचारों वाले हैं, जिन युवाओं के रिश्ते अपने माता-पिता से प्रजातांत्रिक हैं, वे अपने माता-पिता से राय यूँ भी करते हैं, उसके लिए दबिश बनाने की जरूरत नहीं होगी।

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