जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी...

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बतियाने के बेतार यंत्र मोबाइल फोन ने इंसान की जिंदगी में जितनी उथल-पुथल पैदा की है, वह आग और चक्के की खोज से पैदा हुई हलचल से कम चौंकाने वाली नहीं है और अब वह दिन दूर नहीं जब भारत में अमेरिका और रूस से कहीं ज्यादा मोबाइलधारक होंगे

मोबाइल फोन ने लोगों की जिंदगी में ऐसी जगह बना ली है कि इसके बिना जिंदगी बेनूर-सी लगने लगती है। समाज का ऐसा कोई तबका नहीं जो दिल के करीब की पाकेट में मोबाइल की कंपन को महसूस न कर रहा हो। खासकर युवाओं की जिंदगी में तो मोबाइल फोन से क्रांतिकारी बदलाव आए हैं।

मोबाइल फोन निर्माता कंपनी नोकिया की ही एक संस्था सेंटर फॉर नॉलेज सोसायटी के एक अध्ययन के मुताबिक वर्ष 2008 तक भारत मोबाइल फोनधारकों की संख्या के लिहाज से अमेरिका व रूस को पीछे छोड़ देगा और उसका करीब दो तिहाई क्षेत्र मोबाइल नेटवर्क के दायरे में आ जाएगा। भारत में हर महीने मोबाइल परिवार में करीब 60 लाख नए लोग जुड़ जाते हैं।

भारत की मोबाइल फोन सेवा प्रदाता कंपनियों की संस्था 'सेल्युलर ऑपरेटर एसोसिएशन ऑफ इंडिया' के मुताबिक 31 अक्टूबर 2007 तक भारत में मोबाइलधारकों की संख्या 21 करोड़ 30 लाख 9 हजार 843 थी।

सागर के ईएमआरसी केन्द्र से जुडे फिल्म निर्माता पंकज तिवारी कहते हैं कि अलादीन के जादुई चिराग की तरह मोबाइल फोन देश-विदेश की खबरें, क्रिकेट का स्कोर, बैंक खाते की खबर बटन दबाते ही पेश कर देता है। महानगरों में तो बिजली या टेलीफोन के बिल भरने से लेकर हवाई जहाज, रेल या फिर फिल्म की टिकट खरीदारी और बैंक से पैसे के लेनदेन तक का काम मोबाइल के जरिये किया जा सकता है।

मोबाइल फोन ने संवाद का आवागमन इतना आसान कर दिया है कि अब संदेश पलक झपकते ही बिना किसी चूक के दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक 'सेंट' किया जा सकता है। रूठे को मनाना हो, किसी खास मौके की बधाई देनी हो या फिर दिल का हाल सुनाना हो तो एसएमएस के जरिये चुपके से अपनी बात कही जा सकती है। न किसी के सुनने का खतरा और न किसी को पता लगने का डर।

समाजशास्त्री व डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र विभाग में पदस्थ वरिष्ठ व्याख्याता दिवाकर राजपूत कहते हैं कि एसएमएस कल्चर का सबसे बुरा असर पत्र लिखने की रचनात्मक सोच पर पड़ा है। सीधे सपाट आधे अधूरे अशुद्ध व अपूर्ण वाक्यों के रूप में भेजे जाने वाले एसएमएस ने पत्र लेखन कला को डँस लिया है और तकनीकी उन्नति की कीमत हमें पारंपरिक शिष्टाचार व सलीकों को गँवाने के रूप में चुकानी पड़ रही है।

मोबाइल फोन ने दूरियों को जैसे खत्म कर दिया है। इस सिलसिले में 65 वर्षीय कुन्ती शुक्ला अपने मोबाइल फोन को एक करिश्मा मानती हैं, जिसके जरिये वे लंदन में रह रहे अपने छोटे बेटे के नवजात जुडवाँ बच्चों को देख पाईं। उनके पुत्र ने बच्चों के जन्म के कुछ ही देर बाद उनकी फोटो अपनी माँ के मोबाइल फोन पर भेज दी।

मोबाइल ने तन्हाई के अहसास को काफी हद तक कम कर दिया है। अगर मोबाइल पास हो तो किसी की याद आते ही झट से उससे बात कर सकते हैं या फिर बोर होने पर गेम खेलकर, गाना सुनकर या फिल्म देखकर भी वक्त गुजार सकते हैं।

छतरपुर में पदस्थ महिला एवं बाल विकास अधिकारी उषा खरे का कहना है कि जब कभी अपनों के साथ वक्त गुजार रहे हों तब मोबाइल फोन की घंटी बड़ी नागवार लगती है, लेकिन तन्हाई के दौरान यही घंटी बड़ी मीठी भी लगती है।

मोबाइल से सभी खुश हों, ऐसा भी नहीं है। जवान होते बच्चों के माता-पिता को मोबाइल किसी दुश्मन से कम नजर नहीं आता। बच्चों पर नजर रखने की मंशा से उनको मोबाइल थमाने की पहल माँ-बाप के लिए गले की हड्रडी साबित हो रही है। मोबाइल उन्हें यह तो बता देता है कि उनका बच्चा कहाँ है, पर मोबाइल के जरिये कब किसका कौन सा एसएमएस आ रहा है या बच्चा कब किससे बात कर रहा है यह पता नहीं चल पाता।

युवाओं की जिंदगी में मोबाइल फोन ने रिश्तों के खुलेपन की ऐसी मादक गंध भर दी है जिससे मर्यादाओं के बंधन ढीले पड़ने लगे हैं। बातचीत की निजता इतनी गुपचुप बन गई है कि कब कौन सा संदेश हौले से अपनी मंजिल पर पहुँच जाता है, किसी को कानोकान खबर नहीं होती।

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