जिम्मी मगिलिगन सेंटर पर पर्यावरण सप्ताह का दूसरा दिन

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जिम्मी मगिलिगन सेंटर फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट, ग्राम सनावदिया में 1 जून से  शुरू  प्रकृति के पांच तत्वों को समर्पित एक सप्ताह यूएनईपी संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की थीम "मैं प्रकृति के साथ हूं क्या आप भी हैं" साप्ताहिक उत्सव के दौरान पर्यावरणविद और प्रकृति प्रेमी बचाने के लिए उत्सव के दौरान चिन्मय मिश्रा, अरुण डिके, देव वासुदेवन, अनुराग शुक्ला, राजेन्द्र सिंह, राजेश शर्मा, आईआईएम से आभा चाटेर्जी, आर्किटेक्ट विभा जैन, सभी आयु वर्ग के लोग शामिल हुए।

सभी का स्वागत करते हुए डॉ. जनक मगिलिगन ने विश्व पर्यावरण दिवस 2017 का परिचय दिया और इसका इतिहास व उद्देश्य बताते हुए कहा कि पूरे विश्व में आम लोगों को जागरुक बनाने के साथ ही कुछ सकारात्मक पर्यावरणीय कार्यवाही द्वारा पर्यावरणीय मुद्दों को सुलझाने के लिए, मानव जीवन में स्वास्थ्य और हरित पर्यावरण के महत्व के बारे में वैश्विक जागरुकता को फैलाने के लिए वर्ष 1973 से हर 5 जून को एक वार्षिक कार्यक्रम के रुप में विश्व पर्यावरण दिवस मनाने की शुरुआत की गई।

अपने पर्यावरण की सुरक्षा करने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार या निजी संगठनों की ही नहीं बल्कि पूरे समाज की जिम्मेदारी है। अरुण डीके व चिन्मय मिश्रा ने आज “मिट्टी व जैविक भोजन की स्थिति व रसायनों से इंसान, धरती व किसानों, हर प्राणी को खतरों से अवगत कराया उन्होंने मिट्टी को सभी  प्राणी, जीव-जंतुओं के जीवन का सबसे मुख्य व आवश्यक आधार बताया। लेकिन प्रकृति के द्वारा दिए गए इस उपहार को इंसान अपनी मानव स्वार्थी गतिविधियों से रासायनिक उर्वरकों को एवं कीटनाशकों का इसमें जमकर इस्तेमाल कर इसकी प्राकृतिक उर्वरता को नष्ट कर गुणवत्ता को बड़े स्तर पर प्रभावित कर रहा है,  जिससे इसकी पोषक क्षमता कम होती जा रही है और मिट्टी मे जहर बढ़ता जा रहा है। 

जहर भरे पदार्थ जब भोजन के माध्यम से मानव शरीर में पहुंचते हैं तो अनेकों प्रकार की बीमारियां हो जाती हैं। हर वस्तु कागज, प्लास्टिक की थैली, पत्तल, दोना, डिब्बा आदि में बंद करके बेची जाती है। वस्तु का उपयोग होते ही वह पेकिंग कचरा बन जाती है और उसे जहां-तहां सड़कों, गलियों में फेंक दिया जाता है। इसकी सफाई पर ढेरों खर्च तो होता है, विशेष समस्या यह है कि उसे डाला कहां जाए ? आजकल शहरों के नजदीक जो उबड़ खाबड़ जमीनें होती हैं, वे इस कचरे से भर जाती हैं। 
 
प्राकृतिक खेती उनके अनुसार ...प्रकृति अपने उत्पादित कचरे को ठिकाने लगाती और उपयोगी बनाती रहती है। पशुओं के मल-मूत्र, पेड़ों से गिरे पत्ते आदि सड़ गल कर उपयोगी खाद बन जाते हैं और वनस्पति उत्पादन में काम आते हैं। मनुष्य का मल-मूत्र भी उतना ही उपयोगी है पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि उससे खाद न बनाकर नदी - नालों में बहा दिया जाता है और पेय जल को दूषित कर दिया जाता है। इससे दुहरी हानि है, खाद से वंचित रहना और कचरे को नदियों में फेंककर बीमारियों को आमंत्रि‍त करना।

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