जिम्मी मगिलिगन सेंटर पर पर्यावरण सप्ताह का चौथा दिन

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जिम्मी मगिलिगन सेंटर फॉर सस्टेनेबल डेवलपमेंट, सनावदिया पर चल रहे विश्व पर्यावरण दिवस के इर्द गिर्द प्रायोजित सप्ताह भर के कार्यक्रमों के चौथे दिन नदियों एवं जल की प्रासंगिकता पर चर्चा हुई। मंत्रोच्चार एवं सुंदर प्रार्थना, भजन प्रस्तुतियों के पश्चात श्री दिलीप चिंचालकर ने पृथ्वी पर उपलब्ध जल, वर्षा चक्र एवं समस्त प्रकृति के पोषण में नदियों के महत्व पर अपने वृहद् ज्ञान को साझा किया। बड़े ही सहज लहजे में एक बच्चे के नजरिए से अपने बाल्यकाल के अनुभवों के जरिए गूढ़ दर्शन की बातें समझाते हुए उन्होंने भारतीय संस्कृति में नदियों के मातृ स्वरूप की व्याख्या की।
 
मां की अनुपस्थिति में उनकी साड़ी के नदी के रूप में बिछाए जाने से एक बालक के मानस पर इस प्रभाव का वर्णन अत्यंत मर्मस्पर्शी रहा। श्री चिंचालकर ने यूं ही छवियों के माध्यम से जीवन में जल के महत्व को तो समझाया ही, जल जैसे अमृत की दुर्लभता को भी रेखांकित किया। पृथ्वी के कुल द्रव्य का मात्र एक बटा 40 चालीस हजार अंश है जल और उसका मात्र 3 प्रतिशत ही मानव के उपयोग का है। ऐसे में उसकी अमूल्यता को समझना हमारे अस्तित्व के लिए निहायत आवश्यक है।



आज हमारी नदियां बीमार हैं और हम उन मांओं का उपचार करने की जगह सतही आयोजनों में संतुष्ट हैं, ऐसा उनका कहना समाज में नदियों के प्रति उदासीनता के विषय में था। श्री चिंचालकर के विचारों ने उपस्थित लगभग 75 श्रोताओं को गहरे तक प्रभावित किया। डॉ जनक मगिलिगन ने विश्व पर्यावरण दिवस 2017 का परिचय देते हुए विश्व पर्यावरण दिवस का इतिहास व उद्देश्य बताया कि पर्यावरण हमारे जीवन का मुख्य स्रोत है और पंच् तत्व का सरंक्षण करना हमारे  लिए अनिवार्य है।
 
श्रीमती अनुराधा दुबे एवं गौरव अग्रवाल ने श्वानों के बारे में अपनी वार्ता में कहा श्वान मानव का पुराना साथी रहा है और भारतीय संस्कृति में उनका भी एक विशेष महत्व रहा है। पर आधुनिकता की दौड़ में एक और चलन दिख रहा है कि लोग महंगे विदेशी श्वानों को पालने में अपनी शान समझने लगे हैं और स्थानीय नस्ल उपेक्षित होते जा रहे हैं। इससे स्थानीय नस्ल के श्वान तो दयनीय स्थिति में आ ही गए हैं, विदेशी नस्ल के श्वानों पर भी मौसम और बीमारियों की मुसीबत बनी रहती है। उनकी दुर्गति में हमारी प्रकृति के प्रति असंवेदनशीलता की एक और बानगी दिखती है। उन्होंने सब से निवेदन किया कि अपने परिवेश में श्वानों के प्रति संवेदना प्रदर्शित करने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करें। अगर उनसे समस्या हो तो नसबंदी जैसे विकल्प के लिए संपर्क करें। बड़े रोचक तरीके से उन्होंने कहा कि तीन तरह के लोग होते है, पहले जो श्वानों से प्रेम करते हैं, दूसरे जो उनसे अप्रभावित होते हैं और तीसरे जो उनसे घृणा करते हैं। उनका सबसे निवेदन था कि आखिरी वर्ग के लोगों को कम से कम दूसरे वर्ग में लाने का प्रयास करें।

पेशे से भौतिक शास्त्री तथा प्रख्यात फोटोग्राफर श्री आशीष दुबे ने अंत में अपने चित्रों के माध्यम से नदी के सौंदर्य को उकेरा। जल के महत्व पर उनके द्वारा उक्त पंक्तियां बेहद रोचक थीं।
 
पानी पानी रटते रटते पानी समझ न पाए
शोला शोला रटते रटते शोला समझ न आए
एक शोला जो जुबां पे रख लो शोला समझ आ जाए।
 
उपस्थित श्रोता गण ने सभी प्रस्तुतियों को बहुत सराहा और प्रकृति, जल, जंगल और जीवन के उत्थान हेतु अपनी प्रतिबद्धता का संकल्प लिया।
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