इस बार कुछ अलग होंगे जम्मू-कश्मीर चुनाव

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जम्मू-कश्मीर में इस बार के विधानसभा चुनाव अब तक हुए चुनावों से अलग हैं। एक समय तक इस राज्य में निर्विरोध चुनाव हुआ करते थे तो एक समय एक ही पार्टी का दबदबा रहा है। लेकिन यह पहला मौका है जबकि राज्य की सभी 87 सीटों के लिए बहुकोणीय कड़ा मुकाबला होने जा रहा है और राज्य की सभी सीटों पर पहली भाजपा चुनाव लड़ रही है। 
श्रीनगर। वर्ष 1947 में जम्मू कश्मीर के भारतीय संघ में शामिल होने के बाद से एक पार्टी के शासन से राज्य की सभी 87 विधानसभा सीटों के लिए राज्य का राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया है। जम्मू-कश्मीर में ज्यादातर समय तक नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) का शासन रहा। कभी-कभी राष्ट्रपति शासन भी रहा, लेकिन राज्य में पीपुल्स ड्रेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के गठन के बाद से वर्ष 2002 और 2008 में गठबंधन सरकारें भी रहीं। उल्लेखनीय है कि इन दोनों ही अवसरों पर कांग्रेस ने पीडीपी और एनसी के साथ सत्ता में भागीदारी की। 
 
पर राज्य में अब भाजपा के प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में हिंदू बहुल सीटों और कश्मीरी पंडितों के वोट बैंक को अपने खाते में डालने के इरादे से मैदान में उतर रही है और ऐसे में कांग्रेस की हालत खराब होना तय माना जा रहा है। संभवत: अब इसका इतना भी महत्व नहीं रहेगा कि यह किसी सरकार में भी शामिल हो सके। हालांकि राज्य की सभी क्षेत्रीय पार्टियों ने भाजपा के साथ गठबंधन करने से इनकार कर दिया है, लेकिन राजनीतिज्ञों के भाजपा के साथ बहती हवा में जाने की संभावना अधिक नजर आ रही है। सभी क्षेत्रीय दलों का कहना है कि भाजपा राज्य को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करना चाह रही है। 
 
राज्य में होने वाले चुनावों के दौरान दस हजार से ज्यादा मतदान केन्द्र बनाए जाएंगे। इनमें ज्यादातर केन्द्र बहुत अधिक संवेदनशील और संवेदनशील हैं। राज्य के 75 लाख से ज्यादा मतदाता इन पर अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए मताधिकार का प्रयोग करेंगे। जबकि अलगाववादियों ने मतदान का बहिष्कार करने का प्रचार करना शुरू कर दिया है और कश्मीर घाटी में विशेष रूप से इसका असर होने की संभावना है। 25 विधानसभा सीटों के लिए कोई चुनाव नहीं होंगे क्योंकि यह सीटें पाकिस्तान ‍अधिकृत कश्मीर (पीओके) के लोगों के लिए आरक्षित हैं। 
 
वर्ष 1975 में इंदिरा-शेख अब्दुल्ला के समझौते के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। इससे पहले भी नेशनल कॉन्फ्रेंस की सरकारें रही हैं। वर्ष 75 में समझौता होने के बाद कांग्रेस के सैयद मीर कासिम ने अपनी कुर्सी छोड़ दी थी और शेख अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री का पद मिला। तब शेख ने राष्ट्रीय मुख्यधारा में शामिल होते हुए राज्य में जनमत संग्रह कराने की मांग को भी छोड़ दिया था। 
 
महाराजा हरिसिंह ने 1934 में पहली बार अपने राज्य (रियासत) के लिए पहली विधायिका गठित की थी। हालांकि इसे असंवैधानिक और प्रतिनिधित्वहीन समझा गया था क्योंकि चुनावों में किसी भी पार्टी को भाग लेने की आजादी नहीं दी गई थी। तब जनवरी 1927 से मार्च 1929 तक सर अलबियोन बैनर्जी ने, वर्ष 1929 से 1933 तक जीईसी वेकफील्ड ने, 1933 से 1936 तक इलियट जेम्स डॉवेल कॉलविन ने राज्य की सत्ता संभाली। इसी तरह से सर बरजोर जे. दलाल (1936 से जुलाई 1943 तक), कैलाश नारायण हक्सर (जुलाई 1943 से 1944 तक), सर बेनेगल नरसिंग राउ फरबरी 1944 से जून 28, 1945 तक, रामचंद्र काक जून, 28 से अगस्त 11, 1947 तक रहे और अगस्त 11, 1947 से लेकर 15 अक्टूबर, 1947 जनकसिंह ने राज्य की सत्ता संभाली।   
 
विभाजन के बाद अक्टूबर 15, 1947 से मार्च 5, 1948 तक मेहर चंद महाजन राज्य के पहले प्रधानमंत्री थे। मार्च 5, 1948 के बाद कांग्रेस के महाजन ने सत्ता छोड़ी थी और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला प्रधानमंत्री बने। 
 
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जम्मू-कश्मीर में पहली बार अगस्त-सितम्बर 1951 में चुनाव हुए और नेशनल कॉन्फ्रेंस ने शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में सभी 75 सीटों पर निर्विरोध जीत हासिल की थी। जब शेख अब्दुल्ला 31 अक्टूबर, 1951 को राज्य के प्रधानमंत्री बने तब उन्होंने विधानसभा को पहली बार संबोधित किया और कहा कि सदन राज्य के संविधान का गठन करे और राज्य के संघ में शामिल होने के बारे में एक तर्कसंगत निष्कर्ष प्रस्तुत करे।   
 
लेकिन, बाद में उन्हें प्रधानमंत्री के पद से हटा दिया गया और वे करीब 10 वर्षों तक जेल में रहे। इस बीच नेशनल कॉन्फ्रेंस के एक वरिष्ठ नेता बख्शी गुलाम मोहम्मद 9 अगस्त, 1953 तक राज्य के प्रधानमंत्री रहे और उन्होंने शेख अब्दुल्ला विरोधी नेताओं की मदद से सरकार चलाई। शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस में उनके वफादार नेताओं ने जनमत संग्रह समर्थक मोर्चा बनाया और किसी भी विधानसभा या संसद के लिए चुनावों में भाग नहीं लिया। यह स्थिति तब तक बनी रही जब तक कि इंदिरा-शेख समझौता नहीं हुआ। 
 
वर्ष 1962 में पहले विधानसभा चुनावों में शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी के दौरान पार्टी का नेतृत्व बख्शी गुलाम मोहम्मद ने किया और 70 सीटों पर जीत हासिल कर बहुमत हासिल किया। प्रजा परिषद (पीपी) को तीन सीटें मिलीं और दो सीटों पर निर्दलीय उम्मीदवार जीते। प्रजा परिषद के लिए शिवचरण लैंडर टीकरी से ऋषि कुमार कौशल रियासी से और प्रेमनाथ जम्मू शहर उत्तर सीट से जीते थे। दो निर्दलीय प्रत्याशियों में अब्दुल गनी मीर (हंदवाड़ा) से और दड़गाम से गुलाम नबी वानी ने क्रमश: नेशनल कॉन्फ्रेंस और इंडियन नेशनल कांग्रेस के उम्मीदवारों को हराया था। 
 
वर्ष 1963 में बख्शी को अपना पद छोड़ना पड़ा क्योंकि हजरतबल की मस्जिद से पैगम्बर मोहम्मद की निशानी गायब हो गई थी। इसका घाटी में व्यापक विरोध हुआ और बाद में 12 अक्टूबर, 1963 में ख्वाजा शम्सुदीन राज्य के प्रधानमंत्री बनाए गए। फरवरी 29, 1964 को ख्वाजा को भी हटा दिया गया और जीएम सादिक नए प्रधानमंत्री बन गए। इसके बाद बख्शी के विश्वसनीय नेशनल कॉन्फ्रेंस नेताओं ने पाटी छोड़ दी और वे कांग्रेस में शामिल हो गए। मार्च 1965 में प्रधानमंत्री का पद बदलकर इसे मुख्यमंत्री बना दिया गया और सादिक राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। 
 
वर्ष 1967 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो सादिक के नेतृत्व में कांग्रेस ने पूर्ण बहुमत प्राप्त करते हुए 61 सीटें जीत ली थीं। उस समय भारतीय जनसंघ ने तीन सीटें जीती थीं और बख्शी गुलाम मोहम्मद की नेशनल कॉन्फ्रेंस को मात्र 8 सीटें मिल सकी थीं। चुनावों में तीन निर्दलीय भी जीते थे। इन चुनावों में जनसंघ के आर. नाथ जम्मू दक्षिण, प्रेमनाथ ने जम्मू उत्तर और शिवचरण टीकरी से कांग्रेस उम्मीदवारों को हराकर जीते थे। 12 दिसंबर 1971 को सादिक का निधन हो गया और उनके स्थान पर सैयद मीर कासिम राज्य के मुख्यमंत्री बने। 
 
वर्ष 1972 में कासिम के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव हुए। इन चुनावों में कांग्रेस को 58 सीटें, भारतीय जनसंघ को तीन और जमात-ए-इस्लामी (जेएमआई) ने पहली बार चुनावों में भाग लेते हुए पांच सीटों पर जीत हासिल की थी। इनमें से जेएमआई के एक नेता सैयद अली शाह जिलानी भी थे जोकि कट्‍टरपंथी हुर्रियर कॉन्फ्रेंस (एचसी) के वर्तमान प्रमुख हैं। इन चुनावों में 9 ‍‍निर्दलीय भी जीतने में सफल हो सके थे। 
 
कासिम 25 फरवरी 1975 तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे लेकिन इंदिरा-शेख समझौते के बाद उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पडी और शेख को मुख्यमंत्री बनाया गया। लेकिन कांग्रेस ने शेख अब्दुल्ला को ‍दिया समर्थन वापस ले लिया और इसके बाद राज्य में 26 मार्च, 1977 से 9 जुलाई, 1977 तक राष्ट्रपति शासन रहा। वर्ष 1977 के चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस को जोरदार सफलता मिली और शेख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बनाए गए। 8 ‍सितंबर, 1982 को शेख अब्दुल्ला के निधन के बाद उनके बेटे डॉ. फारूक अब्दुल्ला को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया, लेकिन कांग्रेस की मदद से डॉक्टर अब्दुल्ला की सरकार को उनके बहनोई गुलाम मोहम्मद शाह ने गिरवा दिया। 2 जुलाई, 1984 से मार्च 1986 तक शाह राज्य के मुख्‍यमंत्री रहे।
 
बाद में, कांग्रेस ने शाह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया और राज्य में 6 मार्च, 1986 से 7 नवंबर, 1986 तक राष्ट्रपति शासन रहा। इसके बाद हुए चुनावों में फारूक को सफलता मिली और वे फिर से मुख्यमंत्री बनाए गए। 19 जनवरी, 1990 को उन्होंने जगमोहन को राज्यपाल नियुक्त करने के विरोध में इस्तीफा दे दिया। तब नेशनल कॉन्फ्रेंस के अतिरिक्त महासचिव और राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के चाचा ने एक साक्षात्कार में आरोप लगाया कि घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के पीछे जगमोहन का हाथ था। वर्ष 1996 तक राज्य में राष्ट्रपति शासन चलता रहा और जब नए चुनाव कराए गए तो एनसी को पूर्ण बहुमत मिला और फारूक फिर से राज्य के मुख्यमंत्री बनाए गए। 
 
नेशनल कॉन्फ्रेंस को यह पूर्ण बहुमत इस वायदे पर मिला था कि वे राज्य में स्वायत्तता की बहाली करेंगे। राज्य की विधायिका के दोनों सदनों ने स्वायत्तता के प्रस्ताव को पास कर दिया, लेकिन केन्द्र की राजग सरकार ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। आश्चर्य की बात है ‍कि तब एनसी, केन्द्र की राजग सरकार में हिस्सेदार थी और उमर केन्द्रीय मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री थे। परिणामस्वरूप, 18 अक्टूबर, 2002 से 2 नवंबर 2002 तक फिर राज्य में राष्ट्रपति शासन रहा। जब राज्य में नए चुनाव हुए तो राज्य में पीडीपी का गठन करने वाले मुफ्‍ती मोहम्मद सईद पहले गैर-एनसी मुख्यमंत्री बने। उन्हें कांग्रेस ने समर्थन दिया था। कांग्रेस के साथ गठबंधन के दौरान तय हुआ था ‍कि दोनों पा‍र्ट‍ियां तीन-तीन वर्षों तक सत्ता में रहेंगी। पीडीपी ने तीन वर्ष तक राज्य कर लिया और कांग्रेस ने जब गुलाम नबी आजाद को मुख्यमंत्री बनाया तब पीडीपी ने कांग्रेस की आजाद सरकार से समर्थन वापस ले लिया।   
 
अमरनाथ भूमि विवाद को लेकर हुए राज्यव्यापी विरोध के बाद 11 जुलाई, 2008 को फिर एक बार राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। 5 जनवरी, 2009 तक आजाद ने मुख्यमंत्री की गद्दी संभाली और 2008 में हुए चुनावों में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला। 28 सीटें जीतकर नेशनल कॉन्फ्रेंस सबसे बड़ी पार्टी बनी और पीडीपी ने 21 सीटों पर जीत हासिल की थी। कांग्रेस को 17, भाजपा को 11 और अन्य को दस सीटें मिली थीं। अन्य दलों में नेशनल पैंथर पार्टी (एनपीपी), कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (एम), डमोक्रेटिक पार्टी नेशनलिस्ट (डीपीएन) और पीपुल्स डमोक्रेटिक फ्रंट (पीडीएफ) शामिल हैं। इससे पहले 5 जनवरी, 2009 को कांग्रेस ने समर्थन देकर उमर अब्दुल्ला को मुख्यमंत्री बनवा दिया और वे अभी भी मुख्यमंत्री हैं।        
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