सियाचिन हिमखंड पर 33 सालों से जारी है 'बेमायने की जंग'

सुरेश एस डुग्गर
श्रीनगर। 13 अप्रैल यानी आज पूरे 33 साल हो गए दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धस्थल सियाचिन हिमखंड पर भारत व पाक को बेमायने जंग को लड़ते हुए। यह विश्व का सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित युद्धस्थल ही नहीं बल्कि सबसे खर्चीला युद्ध मैदान भी है जहां होने वाली जंग बेमायने है क्योंकि लड़ने वाले दोनों पक्ष जानते हैं कि इस युद्ध का विजेता कोई नहीं हो सकता। 
 
इस बिना अर्थों की लड़ाई के लिए पाकिस्तान ही जिम्मेदार है, जिसने अपने मानचित्रों में पाक अधिकृत कश्मीर की सीमा को एलओसी के अंतिम छोर एनजे-9842 से सीधी रेखा खींच कर कराकोरम दर्रे तक दिखाना आरंभ किया था। चिंतित भारत सरकार ने तब 13 अप्रैल 1984 को आप्रेशन मेघदूत आरंभ कर उस पाक सेना को इस हिमखंड से पीछे धकेलने का अभियान आरंभ किया जिसके इरादे इस हिमखंड पर कब्जा कर नुब्रा घाटी के साथ ही लद्दाख पर कब्जा करना था।
 
आज ही के दिन 1984 में कश्मीर में सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जा करने के लिए सशस्त्र बलों ने अभियान छेड़ा था। इसे ऑपरेशन मेघदूत का नाम दिया गया। यह सैन्य अभियान अनोखा था क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी युद्धक्षेत्र में पहली बार हमला शुरू किया गया था। सेना की कार्रवाई के परिणामस्वरूप भारतीय सैनिक पूरे सियाचिन ग्लेशियर पर नियंत्रण हासिल कर रहे थे।
 
ऑपरेशन मेघदूत के 33 साल बाद आज भी रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण सियाचिन ग्लैशियर पर भारत का कब्जा है। यह विजय भारतीय सेना के शौर्य, नायकत्व, साहस और त्याग की मिसाल है। विश्व के सबसे ऊंचे और ठंडे माने जाने वाले इस रणक्षेत्र में आज भी भारतीय सैनिक देश की संप्रभुता के लिए डटे रहते हैं।
 
ये ऑपरेशन 1984 से 2002 तक चला था यानी पूरे 18 साल तक। भारत और पाकिस्तान की सेनाएं सियाचिन के लिए एक दूसरे के सामने डटी रहीं। जीत भारत की हुई। आज भारतीय सेना 70 किलोमीटर लंबे सियाचिन ग्लेशियर, उससे जुड़े छोटे ग्लेशियर, 3 प्रमुख दर्रों (सिया ला, बिलाफोंद ला और म्योंग ला) पर कब्जा रखती है। इस अभियान में भारत के करीब 1 हजार जवान शहीद हो गए थे। हर रोज सरकार सियाचीन की हिफाजत पर करोड़ों रुपए खर्च आती है।
 
यह उत्तर पश्चिम भारत में काराकोरम रेंज में स्थित है। सियाचिन ग्लेशियर 76.4 किमी लंबा है और इसमें लगभग 10,000 वर्ग किमी विरान मैदान शामिल हैं। सियाचिन के एक तरफ पाकिस्तान की सीमा है तो दूसरी तरफ चीन की सीमा अक्साई चीन इस इलाके को छूती है। ऐसे में अगर पाकिस्तानी सेना ने सियाचिन पर कब्जा कर लिया होता तो पाकिस्तान और चीन की सीमा मिल जाती। चीन और पाकिस्तान का ये गठजोड़ भारत के लिए कभी भी घातक साबित हो सकता था। सबसे अहम ये कि इतनी ऊंचाई से दोनों देशों की गतिविधियों पर नजर रखना भी आसान है।
 
भारत सरकार ने इसके बाद कभी भी सियाचिन हिमंखड से अपनी फौज को हटाने का इरादा नहीं किया क्योंकि पाकिस्तान इसके लिए तैयार ही नहीं है। नतीजतन आज जबकि इस हिमखंड पर सीजफायर ने गोलाबारी की नियमित प्रक्रिया को तो रूकवा दिया है पर प्रकृति से जूझते हुए मौत की आगोश में जवान अभी भी सो रहे हैं, पाकिस्तान सेना हटाने को तैयार नहीं है।
 
युद्ध की कथाओं को सुनने वालों के लिए युद्ध की तस्वीर आंखों के समक्ष खींचने में अधिक परेशानी नहीं होती लेकिन सियाचिन हिमखंड में होने वाली लड़ाई की तस्वीर वे नहीं खींच पाते जो बेमायने तो है ही सही मायनों में यह युद्ध दुश्मन के साथ नहीं बल्कि प्रकृति के साथ है जो होने वाली मौतों के 97 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार है।
 
18 हजार से 22 हजार फुट की ऊंचाई पर तैनात सैनिकों के लिए युद्ध लड़ना आसान नहीं है। तोपची शत्रु के गोलों से बचने की कोशिश तो करते ही हैं उससे पहले वे उस भयानक सर्दी से बचाव की कोशिश में जुटते हैं जिसकी एक हवा तक शरीर को लगने का सीधा अर्थ होता है जीवन से सदा के लिए मुक्ति। लेकिन इन सबके बावजूद भारतीय सैनिक ऊंचे मनोबल के साथ उन चौकिओं पर पाक हमले के खतरे के बीच तैनात हैं जहां तक पहुंचने का एक मात्र साधन हैलिकाप्टर हैं। 
 
सियाचिन के हिमखंड में बेमायने जंग लड़ रहे इन सैनिकों के लिए भारतीय वायुसेना का चीता हैलिकाप्टर किसी देवता से कम नहीं है जो उन्हें सभी प्रकार की आपूर्ति बहाल रखने के लिए दुश्मन की गोलों की बरसात के बीच भी उड़ाने भर रहे हैं। हालांकि यह विमान 18 हजार फुट की ऊंचाई पर उड़ान भरने के काबिल हैं मगर मजबूरन उनके पायलटों को 22 हजार फुट की ऊंचाई पर उड़ान इसलिए भरनी पड़ती रही है ताकि पाकिस्तानी गोले उन्हें छू न सकें।
 
इतना अवश्य है कि एक बार इस हिमखंड पर ड्यूटी निभा कर लौटने वाले सैनिक पूरी तरह से स्वास्थ्य नहीं रहते क्योंकि प्रत्येक जवान को प्रकृति अपनी चपेट में ले लेती है जिसका परिणाम उनके अपाहिज होने के रूप में सामने आता है। इसी कारण हिमखंड पर ड्यूटी निभा चुके सेनाधिकारी चाहते हैं कि इस लड़ाई को तत्काल रोका जाना चाहिए जिसके न ही कोई मायने हैं और न ही कोई विजेता हो सकता है क्योंकि बर्फ में दुश्मन से तो जूझा जा सकता है परंतु प्रकृति से नहीं।
 
चारों ओर साल भर जमीं बर्फ पर जीवन का कहीं नामोनिशान नहीं दिखता और बावजूद इसके उसकी रक्षा के लिए अभी तक भारतीय पक्ष हजारों करोड़ों रूपया फूंक चुका है इस सच्चाई के अतिरिक्त कि 1225 से अधिक भारतीय जवान इस युद्धक्षेत्र में पिछले 33 सालों में शहीद हो चुके हैं। एक समय तो ऐसा था कि इस हिमखंड पर प्रत्येक दो दिनों में एक जवान की मृत्यु हो जाती थी। पाक को भी 1554 सैनिक गंवाने पड़े हैं। यह आधिकारिक आंकड़ा है। गैर सरकारी आंकड़ा दोगुना है।
 
इन सैनिकों के लिए बदनसीबी यह है कि कभी पहले बतौर सजा ऐसे स्थानों पर तैनाती की जाती थी लेकिन अब उन्हें मौत के मुंह में धकेलने की शुरुआत हो चुकी है। जहां तैनात जवानों के लिए ताजा खाना और हरी सब्जियां अभी भी सपना हैं। हालत यह है कि सियाचिन में तैनात जवानों की मांग पूरा करने में आज भी दो से तीन सालों का समय लगता है चाहे वह मांग हथियारों के प्रति हो या फिर ठंड से बचाव के लिए कपड़ों की। सियाचिन हिमखंड के युद्धक्षेत्र की कल्पना मात्र से वे सभी लोग कांप उठते हैं जो एक बार इस पर ड्यूटी निभा कर आते हैं। एक वापस लौटने वाले सेनाधिकारी के शब्दों में ‘ग्लेशियर पर अगर कोई एक रात काट कर जीवित बच जाता है तो समझो वह परीक्षा में पास हो गया।’
 
यही नहीं गहन अंधेरे में शून्य से 50 डिग्री नीचे के तापमान में एक चौकी से दूसरी तक का सफर भी कम खतरनाक नहीं है सियाचिन में। चाल इस तरह से रखी जाती है कि पाकिस्तानी सैनिकों से बचने के साथ-साथ प्रकृति की नजर से भी बचा जाए ताकि वह कहीं किसी को निगल न जाए। नतीजतन सियाचिन में दूरी को घंटों में नापते हैं क्योंकि एक घंटे में सिर्फ 250 मीटर की दूरी ही पार की जा सकती है। 
 
देखा जाए तो सियचिन का युद्ध वायुसेना के दम पर ही लड़ा जा रहा है और वायुसेना के दम पर ही यह क्षेत्र भारतीय कब्जे में है। चौंकाने वाला तथ्य यह है कि कभी न जीती जा सकने वाली सियाचिन की लड़ाई पर प्रति वर्ष वायुसेना गैर सरकारी तौर पर 2200 करोड़ रुपए खर्च कर रही है। पिछले 33 सालों में 75 हजार करोड़ के लगभग राशि को वायुसेना सियाचिन के लिए खर्च कर चुकी है।
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