कश्मीर में नई आत्मसमर्पण नीति लाभदायक साबित होने पर शंका

सुरेश एस डुग्गर
श्रीनगर। सीमा पार जाकर प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे तथा प्रशिक्षण प्राप्त कर वापस लौट चुके भ्रमित युवकों अर्थात आतंकियों को राह पर लाकर उनके पुनर्वास की तैयारी की कवायद एक बार फिर से आरंभ हो गई है। इस बार केंद्र और राज्य सरकार ने मिलकर आत्मसमर्पण नीति तैयार करने की कवायद आरंभ की है, जबकि पहले की ऐसी नीतियों का परिणाम निराशाजनक रहा है। यही कारण है कि कश्मीर में सभी को शंका है कि नई नीति भी शायद ही कुछ सकारात्मक दिखा पाएगी।
 
दरअसल, केंद्र ने राज्य सरकार के साथ मिलकर स्थानीय आतंकियों के लिए एक नई सरेंडर नीति तैयार करने की दिशा में प्रयास शुरू कर दिए हैं। इस नीति का मकसद आतंकी संगठनों में भर्ती युवकों को मुख्यधारा में वापस लाने और उन्हें राज्य में शांति प्रक्रिया का हिस्सा बनाना है। प्रस्तावित नीति का प्रारूप तैयार करते हुए अतीत में बनी ऐसी सभी योजनाओं के अनुभव और आत्मसमर्पण कर चुके, सरहद पार से सपरिवार आए आतंकियों के अनुभव ध्यान में रखे जाएंगे।
 
यूं तो राज्य की गठबंधन सरकार के नेता आतंकियों के वाया नेपाल कश्मीर में आने पर खुशी प्रकट करते हैं परंतु वापस लौटने वाले आतंकियों को कोई खुशी नहीं है। उनमें से कई फिलहाल पुलिस स्टेशनों में कैद हैं तो कइयों को परिवारों से अलग रखा जा रहा है। कई अपनी नई जिन्दगी शुरू करना चाहते हैं, पर कहीं से कोई मदद नहीं मिल रही है। नतीजा भी सामने है। अधिकारी स्वीकार करते हैं कि लौटने वालों में से कुछेक ने आतंकवाद की राह थाम ली है। दरअसल, वर्ष 2010 में राज्य की तत्कालीन गठबंधन सरकार ने नई सरेंडर और पुनर्वास नीति जारी की। इसे अनुमोदन के लिए केंद्र सरकार के पास भी भिजवाया गया। उस नीति के अनुसार, वाघा बार्डर, चक्कां दा बाग तथा अमन सेतू के रास्ते वापस लौटने वाले आतंकियों का पुनर्वास करते हुए उन्हें एक आम नागरिक की तरह जिन्दगी बसर करने की अनुमति दी जानी थी।
 
पर केंद्र सरकार ने इस नीति को आधिकारिक तौर पर स्वीकृत करने से इनकार कर दिया। वह अभी भी तत्कालीन पीडीपी सरकार की वर्ष 2004 में घोषित नीति पर ही टिकी हुई है। परिणाम सामने है। पाक कब्जे वाले कश्मीर में रूके हुए करीब 5 हजार भ्रमित युवकों अर्थात आतंकियों का भविष्य खतरे में है। उनमें से करीब 1100 के परिवारों ने उन्हें वापस लाने का आवेदन तो किया पर नीति पर केंद्र व तत्कालीन राज्य सरकार के टकराव के बाद वे भी अनिश्चितता के भंवर में जा फंसे।
 
2004 में भी राज्य सरकार ने केंद्र की मदद से आतंकियों के लिए सरेंडर नीति बनाई थी। उसके बाद करीब छह साल पहले नेशनल कॉन्‍फ्रेंस व कांग्रेस गठबंधन सरकार ने भी सरहद पार बैठे राज्य के युवकों के लिए राहत एवं पुनर्वास नीति का ऐलान किया था। केंद्र ने 1990 के दशक में भी सरेंडर नीति बनाई थी। इसके तहत कई कश्मीरी आतंकियों को सरेंडर करने पर सीआरपीएफ, बीएसएफ और सेना में भर्ती भी किया था। संबंधित अधिकारियों ने बताया कि राज्य में इस समय आतंकियों को सरेंडर करने के लिए प्रेरित करने में पूरी तरह समर्थ कोई भी सरेंडर नीति नहीं है। इसलिए बीते कुछ वर्षों के दौरान हथियार डालने वाले सक्रिय आतंकियों की संख्या नगण्य ही है। जनवरी 2016 से नवंबर 2017 के पहले सप्ताह तक पूरे राज्य में आत्मसमर्पण करने वाले आतंकियों की संख्या दहाई तक भी नहीं पहुंच पाई है।
 
सूत्रों ने बताया कि 2007 के बाद से राज्य में आत्मसमर्पण करने वाले स्थानीय आतंकियों की संख्या लगातार घटी है। बीते एक साल के दौरान सुरक्षाबलों ने कई बार स्थानीय आतंकियों को सरेंडर के लिए मनाने का प्रयास किया, मुठभेड़ के दौरान भी उन्हें मौका दिया गया, लेकिन उन्होंने हथियार छोड़ने के बजाय मरना बेहतर समझा। यही नहीं नेपाल के रास्ते अपने परिवारों के साथ लौटने वाले आतंकियों की दशा को देखकर भी इन 1100 आतंकियों के अभिभावक असमंजस में हैं कि वे अपनों को वापस लौटने के लिए कहें या नहीं। सबसे बड़ी दिक्कत निर्धारित रास्तों से वापसी की है, क्योंकि पाक सेना इन रास्तों से किसी को लौटने नहीं दे रही और नेपाल से चोरी-छुपे आने वालों को पुनर्वास नीति का हकदार ही नहीं माना गया है।

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