वेद एकेश्वरवादी या अनेकेश्वरवादी हैं?

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'... जो सांसारिक इच्छाओं के अधीन हैं उन्होंने अपने लिए ईश्वर के अतिरिक्त झूठे उपास्य बना लिए है। वह जो मुझे जानते हैं कि मैं ही हूं, जो अजन्मा हूं, मैं ही हूं जिसकी कोई शुरुआत नहीं, और सारे जहां का मालिक हूं।' -भगवद् गीता

।।ॐ।। यो भूतं च भव्‍य च सर्व यश्‍चाधि‍ति‍ष्‍ठति‍।।
स्‍वर्यस्‍य च केवलं तस्‍मै ज्‍येष्‍ठाय ब्रह्मणे नम:।। -अथर्ववेद 10-8-1
भावार्थ : जो भूत, भवि‍ष्‍य और सब में व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म (परमेश्वर) को प्रणाम है।

वेदों में एक भी ऐसा मंत्र नहीं लिखा है कि जो ईश्वर के अनेक होने की घोषणा करता हो। वेदों के अनुसार ईश्वर और मानव के बीच किसी 'एजेंट' की जरूरत नहीं है। जैसे कि अन्य धर्मों में प्रॉफेट, गुरु या धर्मगुरु होते हैं। ईश्वर का कोई पुत्र नहीं है और ईश्वर का कोई पिता भी नहीं है। ईश्वर का कोई रूप और गुण नहीं है। रूप और गुण हमारे मन के भेद हैं। जैसे साकार और निराकार, सगुण और निर्गुण ब्रह्म। सगुण और निर्गुण का भेद करने वाले दार्शनिक हैं।

ब्रह्म ही है सत्य : ईश्वर शुद्ध प्रकाश, अजन्मा, अनंत, अनादि, अद्वितीय, अमूर्त हैं। उस ब्रह्मांड शक्ति को वेदों में 'ब्रह्म' कहा गया है। ब्रह्म को आजकल लोग ईश्वर, परमात्मा, परमेश्वर, प्रभु, सच्चिदानंद, विश्‍वात्मा, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, भर्ता, ग्रसिष्णु, प्रभविष्‍णु और शिव आदि नामों से जाना जाता है, वही इंद्र में, ब्रह्मा में, विष्‍णु में और रुद्रों में है। वही सर्वप्रथम प्रार्थनीय और जपयोग्य है, अन्य कोई नहीं। ओमकार जिनका स्वरूप है, 'ओम' जिसका नाम है उस ब्रह्म को छोड़कर किसी भी देवी-देवता, गुरु-संत को ईश्वर या ईश्वरतुल्य मानना वेद विरुद्ध है।

ईश्वर न तो भगवान है, न देवता, न दानव और न ही प्रकृति या उसकी अन्य कोई शक्ति। ‍ईश्वर एक ही है अलग-अलग नहीं। ईश्वर अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं वे सभी ईश्वर नहीं हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध भी ईश्वर नहीं है, क्योंकि ये सभी प्रकट और जन्मे हैं।

' जो सर्वप्रथम ईश्वर को इहलोक और परलोक में अलग-अलग रूपों में देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात उसे बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में फंसना पड़ता है।'- कठोपनिषद-।।10।।

।। इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान् ।।
।। एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।। -ऋग्वेद (1-164-43)

भावार्थ : जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।

इसे ही ईश्वर जानिए : 'जिसे कोई नेत्रों से भी नहीं देख सकता, परंतु जिसके द्वारा नेत्रों को दर्शन शक्ति प्राप्त होती है, तू उसे ही ईश्वर जान। नेत्रों द्वारा दिखाई देने वाले जिस तत्व की मनुष्य उपासना करते हैं वह ईश्‍वर नहीं है। जिनके शब्द को कानों के द्वारा कोई सुन नहीं सकता, किंतु जिनसे इन कानों को सुनने की क्षमता प्राप्त होती है उसी को तू ईश्वर समझ। परंतु कानों द्वारा सुने जाने वाले जिस तत्व की उपासना की जाती है, वह ईश्वर नहीं है। जो प्राण के द्वारा प्रेरित नहीं होता किंतु जिससे प्राणशक्ति प्रेरणा प्राप्त करता है उसे तू ईश्‍वर जान। प्राणशक्ति से चेष्टावान हुए जिन तत्वों की उपासना की जाती है, वह ईश्‍वर नहीं है।। 4,5,6,7,8।। -केनोपनिषद।।

व्याख्या : अर्थात हम जिस भी मूर्त या मृत रूप की पूजा, आरती, प्रार्थना या ध्यान कर रहे हैं वह ईश्‍वर नहीं है, ईश्वर का स्वरूप भी नहीं है। जो भी हम देख रहे हैं, जैसे मनुष्‍य, पशु, पक्षी, वृक्ष, नदी, पहाड़, पत्थर, आकाश आदि। फिर जो भी हम सुन रहे हैं- जैसे कोई संगीत, गर्जना आदि। फिर जो हम अन्य इंद्रियों से अनुभव कर रहे हैं, समझ रहे हैं उपरोक्त सब कुछ 'ईश्वर' नहीं है, लेकिन ईश्वर के द्वारा हमें देखने, सुनने और सांस लेने की शक्ति प्राप्त होती है। इस तरह से ही जानने वाले ही 'निराकार सत्य' को मानते हैं।

प्रस्तुति :  अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
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