दुनिया के प्रथम ग्रंथ वेद में आज तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसका कारण है उसके छंदबद्ध होने की अद्भुत शैली और वेदपाठ करने की खास विधि। यही कारण है कि उनमें किसी भी प्रकार का जोड़-घटाव नहीं किया जा सकता। शोधकर्ता मानते हैं कि वेदों के मूल दर्शन और ज्ञान को सुरक्षित रखने की ऋषि-मुनियों ने एक तकनीक खोजी थी जिसके बल पर ही यह संभव हो पाया और आज तक वेद अपरिवर्तनशील बने रहे। हालांकि कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि वेद के कुछ सूत्र खो गए हैं और छंदों के बीच के शब्दों में हेरफेर किए गए हैं।
बहुत से विद्वान मैक्समूलर पर हिन्दू धर्मग्रंथों को विकृत करने का आरोप लगाते हैं। यह भी कहा जाता है कि मैक्समूलर, विलियम हंटर और लॉर्ड टॉमस बैबिंग्टन मैकॉले इन तीन लोगों के कारण भारत के धर्म और इतिहास का विकृतिकरण हुआ है। भारतीय समाज को तोड़ने के लिए यह सारा षड़यंत्र रचा गया। हालांकि यह विवाद का विषय है। लेकिन हम यहां बताना चाहते हैं कि किस तरह वेदपाठ किया जाता है।
प्रारंभिक वैदिक काल में कागज तो होते नहीं थे। तब लोग ताड़पत्रों पर या फिर शिलाखंडों पर लिखते थे। लेकिन जब हजारों लोगों को सिखाने की बात हो तो? और भी कई कारण थे जिसके चलते ज्ञान को संवरक्षित करने के लिए मनुष्य के चित्त को ही कागज बना दिया गया। सभी वेदमंत्रों की संभाल बिना किसी कागज-स्याही के ही की गयी है। अर्थात प्राचीनकाल के लोगों ने वेदों को कंठस्थ करने की एक परंपरा शुरू की। यहां यह बताना जरूरी है कि कोई भी किताब को सिर्फ रटने से वह कंठस्थ नहीं होती। वह लंबे समय तक याद रहे इसके लिए एक खास छंद और व्याकरणबद्ध विधि की खोज की गई। इसी विधी को भी वैदिक ऋषियों ने कई प्रकारों में बांटा है।
मूलग्रंथ संरक्षण की इतनी सुरक्षित पद्धति को जानने ही अपने आपमें अद्भुत है। हिंदुओं के पूर्वजों ने विभिन्न प्रकार से वेद मन्त्रों को स्मरण करने की विधियों का अविष्कार किया था, जिसके चलते वेदमन्त्रों की स्वर-संगत और उच्चारण का रक्षण कभी नहीं हुआ।
वैदिक ऋषियों ने व्याकरण के नियमों के आधार पर यह सुनिश्चित किया कि वेद मंत्र का गान करते हुए एक भी अक्षर, मात्रा या स्वर में किसी भी प्रकार का फेरबदल न हो सके और वेदपाठी उसे सरलता से कंठस्थ कर ले। इसमें फेरबदल इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि यदि कोई ऐसा करता है तो छंदों का पहले से अंतिम क्रम पूरी तरह गड़बड़ा जाता। लेकिन जिससे छंदों को कंठस्थ कर लिया है उसे पहला सूत्र याद आने के साथ ही छंद के आगे के सूत्र स्वत: ही उच्चारित होने लगते हैं।
दरअसल, ऋषियों ने शब्द के प्रत्येक अक्षर को उच्चारित करने में लगने वाले समय को निर्धारित किया और समय की इस इकाई या समय के अंतराल को 'मंत्र' नाम दिया। वेद मन्त्रों को शुद्धस्वरूप में उच्चारित करने के लिए विधिवत विश्वसन क्रिया के द्वारा शरीर के एक खास हिस्से में वांछित स्पंदन निर्माण करने की प्रक्रिया के विज्ञान को जिस वेदांग में बताया गया है, उसे 'शिक्षा' कहते हैं। यदि आप वैदिक मंत्र को संहिता में देखें तो आपको अक्षरों के पीछे कुछ चिन्ह मिलेंगे। यह चिन्ह 'स्वर चिन्ह' कहलाते हैं, जो मन्त्रों की उच्चारण पद्धति को दर्शाते हैं। इन चिन्हों से यह पक्का हो जाता है कि वेद मन्त्रों में अक्षर, मात्रा, बिंदु, विसर्ग का भी बदलाव नहीं हो सकता है।
परंपरागत गुरुकुलों में विद्यार्थी वेदमंत्रों के पठन में इन स्वरों के नियत स्थान को हाथ व सिर की विशिष्ट गतिविधि द्वारा स्मरण रखते हैं। अतः आप उन्हें वेदमंत्रों के पठन में हाथ व सिर की विशिष्ट गतिविधियां करते हुए देख सकते हैं और यदि मंत्रपठन में अल्प-सी भी त्रुटी पाई गयी तो वे आसानी से ठीक कर लेते हैं। इसके अलावा अलग-अलग गुरुकुल, पठन की विभिन्न प्रणालियों में अपनी विशेषता रखते हुए भी स्वरों की एक समान पद्धति को निर्धारित करते हैं। जिससे प्रत्येक वैदिक मंत्र की शुद्धता का पता उसके अंतिम अक्षर तक लगाया जा सके।
वेदमन्त्रों या छंदों के शब्दों को साथ में विविध प्रकारों में बांधा गया है, जैसे- 'वाक्य', 'पद', 'क्रम', 'जटा', 'माला', 'शिखा', 'रेखा', 'ध्वज', 'दंड', 'रथ' और 'घन'। ये सभी एक वैदिक मंत्र के शब्दों को विविध क्रम-संचयों में पढ़ने की विधि को प्रस्तुत करते हैं।
जिन्होंने मंत्रगान की उच्च श्रेणी घन का अभ्यास किया है उन्हें घनपठिन् कहते हैं। इसी तरह जटापाठी, मालापाठी, शिखापाठी आदि होते है। 'पठिन्' का अर्थ है जिसने पाठ सीखा हो। जब हम किसी घनपठिन् से घनपाठ का गान सुनते हैं तो हम देख सकते हैं कि वे मंत्र के कुछ शब्दों को अलग-अलग तरीकों से लयबद्ध, आगे-पीछे गा रहे हैं। यह अत्यंत कर्णप्रिय होता है। सभी तरह के पाठ को सुनने की अद्भुत और अलग अनुभूति होती है। मात्र सुनने से ही लगता है कि मानों कानों में अमृतरस घुल गया हो।
उपर जो पाठ के प्रकार बताएं गए है उन सभी के गान की विधि अलग अलग होती है। वेदमंत्र के शब्दों को साथ-साथ इस तरह गूंथा गया है, जिससे उनका प्रयोग बोलने में और आगे-पीछे सस्वर पठन में हो सके। पठनविधि के किसी विशेष प्रकार को अपनाए बिना 'वाक्य पाठ' और 'संहिता पाठ' में मंत्रों का गान उनके मूल क्रम में ही किया जाता है।
'वाक्य पाठ' में मंत्रों के कुछ शब्दों को एक साथ मिलाकर संयुक्त किया जाता है। जिसे 'संधि' कहते हैं। संहिता पाठ के बाद आता है पदपाठ। पदपाठ में शब्दों का संधि-विच्छेद करके लगातार पढ़ते हैं। इसके पश्चात क्रमपाठ है। क्रमपाठ में मंत्र के शब्दों को पहला-दूसरा, दूसरा-तीसरा, तीसरा-चौथा और इसी तरह अंतिम शब्द तक जोड़े बनाकर (1-2, 2-3, 3-4,..) याद किया जाता है।
जटापाठ में पहले शब्द को दूसरे के साथ, दूसरे को तीसरे के साथ और इसी क्रम में आगे-पीछे जाते हुए (1-2, 2-3, 3-4, ..), सम्पूर्ण मंत्र को गाया जाता है। शिखापाठ में जटा की अपेक्षा, दो के स्थान पर तीन शब्द सम्मिलित होते हैं और क्रमानुसार (1-2-3, 2-3-4,…) आगे-पीछे जाते हुए, सम्पूर्ण मंत्रगान होता है। इन पठन विधियों की अपेक्षा घनपाठ अधिक कठिन है। घनपाठ में चार भेद होते हैं। इसमें मंत्र के शब्दों के मूल क्रम में विशिष्ट प्रकार के फेर बदल से विविध क्रमसंचयों में संयोजित करके आगे-पीछे गाया जाता है। इन सबको विस्तारपूर्वक अंकगणित की सहायता से समझा जा सकता है।
संहिता और पद पाठ, प्रकृति पाठ कहलाते हैं। क्योंकि इसमें शब्दों का पठन एकबार ही उनके प्राकृतिक क्रम अर्थात मूल स्वरूप में किया जाता है। अन्य विधियों का समावेश 'विकृति पाठ' (गान की कृत्रिम विधि) के वर्ग में होता है। क्रमपाठ में शब्दों को उनके नियमित प्राकृतिक क्रम (एक-दो-तीन) में ही प्रस्तुत किया जाता है। उसमें शब्दों के क्रम को उलटा करके नही पढ़ा जाता, जैसे पहला शब्द- दूसरे के बाद और दूसरा- तीसरे के बाद (2-1,3-2,—) इत्यादि। अतः उसका समावेश पूर्णतया विकृति पाठ में नहीं होता है। क्रमपाठ को छोड़कर, विकृति पाठ के आठ प्रकार हैं, जो सहजता से याद रखने के लिए, इस छंद में कहे गए हैं:-
जटा, माला, शिखा, रेखा, ध्वज, दण्डो, रथो, घनः
इत्यस्तौ- विक्र्तयः प्रोक्तः क्रमपुर्व महर्षिभिः
इन सभी गान विधियों का अभिप्राय वेदों की स्वर-शैली और उच्चारण की शुद्धता को सदा के लिए सुरक्षित करना है। पदपाठ में शब्द मूल क्रम में, क्रमपाठ में दो शब्द एकसाथ और जटापाठ में शब्द आगे-पीछे जाते हुए भी, संख्या में अनुरूप होते हैं। सभी पाठ विधियों में शब्दों की संख्या को गिनकर आपस में मिलान किया जा सकता है।
गौरतलब है कि इतिहास के लम्बे संकटमय काल के दौरान उत्तर भारत पश्चिम एशिया के क्रूर आक्रान्ताओं और उनके वंशजों के बर्बर आक्रमणों से अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्षरत था। आक्रांतानों ने यहां के धर्म और धर्मग्रंथों को मिटाने के भरपूर प्रयास किए जाकि इतिहस से इस धर्म और संस्कृति का नामोनिशान मिट जाए और नया धर्म स्थापित हो, लेकिन जब यह जाना किया कि लाखों की संख्या में ब्राह्मणों ने अपने चित्त या मन में वेदों को कंठस्थ कर रखा है तो उन्होंने संस्कृत पाठशालाओं और गुरुकुलों को नष्ट करना शुरू किया और ब्राह्मणों को धर्मान्तरित किया। ऐसे समय में उत्तर भारत के जंगलों में बचे हुए ब्राह्मण और दक्षिण भारत के वेदपाठियों ने वेदमन्त्रों का रक्षण किया। इति।
वैदिक विद्वानों से चर्चा पर आधारित लेख।