अर्जुन ने की थी ‍भगवान शिव की तपस्या

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जब पांडव द्रौपदी सहित वन में अज्ञातवास का समय बिता रहे थे तब उनके तमाम कष्टों को देखते हुए श्रीकृष्ण और महर्षि व्यासजी ने अर्जुन से भगवान शिव को प्रसन्न करके उनसे वर प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। भगवान शिवजी को प्रसन्न करने का उन्होंने उपाय भी अर्जुन को बताया।
 
वीर अर्जुन, शिवजी को प्रसन्न करने के लिए और अपने राज्य पर आए संकटों के निवारण हेतु व्यासजी के निर्देशानुसार इंद्रकील पर्वत पर पहुंच गए। उन्होंने जाह्ववी के तट पर शिवलिंग का निर्माण किया और उस शिवलिंग की विधिवत पूजा-अर्चना करते हुए तप करने लगे। अपने गुप्तचरों द्वारा जब इंद्र को इस बात का पता चला तो वे तुरंत ही अर्जुन का मनोरथ समझ गए और तत्काल वृद्ध ब्रह्मचारी का वेष धारण करे वहां आए और अर्जुन का आतिथ्य ग्रहण करने के बाद कई प्रकार से उसे तप विमुख करने का, ध्यान भंग करने का प्रयत्न किया, लेकिन जब वो इसमें सफल नहीं हो पाए तब अपने वास्तविक रूप में अर्जुन के सामने आ गए।
 
उन्होंने अर्जुन को शि‍वजी के दिव्य मंत्र का उपदेश दिया और अपने अनुचरों को अर्जुन की रक्षा करने का आदेश देकर अंतर्ध्यान हो गए। तदुपरांत महर्षि व्यासजी के कहे अनुसार शिवजी का ध्यान करते हुए एक पैर पर खड़े हो गए और 'ॐ नम: शिवाय' का जप करने लगे। अर्जुन की घोर तपस्या देखकर देवगण भगवान शिव के पास पहुंचे और अर्जुन को वर प्रदान करने के लिए प्रार्थना करने लगे। देवगणों की बात सुनकर शिवजी मुस्कुराए और बोले- 'आप लोग निश्चिंत रहें।'
 
भगवान शिव के ये शब्द सुनकर सभी देवगण संतुष्ट हो गए और अपने-अपने स्थान को लौट गए। इधर अर्जुन के पास दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ 'मूक' नाम का एक राक्षस सूकर का रूप धारण कर वृक्षों को उखाड़ता, पर्वतों को नुकसान पहुंचाता वहां पहुंचा। उसे देखकर अर्जुन को समझते देर नहीं लगी कि ये मेरा ही नुकसान-अहित करना चाहता है। उन्होंने तुरंत अपना धनुष-बाण उठा लिया।
 
उसी समय शिवजी अपने गणों सहित भील का रूप धारण कर वहां पहुंच गए। उसी पल सूकर ने आक्रमण करने के लिए कदम बढ़ाए कि तभी भीलराज और अर्जुन ने एकसाथ बाण छोड़े। भीलराज का बाण सूकर के पीछे के भाग में लगा और मुंह से निकलता हुआ पृथ्वी में चला गया। अर्जुन द्वारा चलाया गया बाण सूकर के मुंह में लगकर उसके पीछे के भाग से निकलकर पृथ्वी पर गिर गया। वह सूकर तत्काल मर गया।
 
अर्जुन अपना बाण उठाने के लिए नीचे झुके कि उसी पल भीलराज का एक अनुचर भी उस बाण को उठाने के लिए झपटा। अर्जुन ने बहुत कहा कि यह बाण तो मेरा है, इसमें मेरा नाम अं‍कित है, फिर भी अनुचर अपनी हठ पर ही अड़ा रहा। अंत में उस अनुचर ने अर्जुन को बहुत भला-बुरा कहा और युद्ध के लिए ललकारा।
 
अर्जुन को भी गुस्सा आ गया। वह बोले- 'मैं तुमसे नहीं, तुम्हारे राजा से युद्ध करूंगा।' यह बात जब भगवान शिव ने सुनी तो वो अपने गणों सहित युद्ध के लिए तैयार हो गए। दोनों में घमासान युद्ध हुआ। अर्जुन के बाण से घायल होकर शिवगण चारों दिशाओं की ओर भागने लगे। फिर किरात वेषधारी शिवजी ने अर्जुन के कवच और बाणों को नष्ट कर दिया। तब अर्जुन ने भगवान शिव का ध्यान किया और उस किरात वेषधारी का पैर पकड़कर उसे जोर-जोर से घुमाने लगे। तभी शिवजी अपने असली रूप में प्रकट हो गए।
 
अर्जुन अपने सामने शिवजी को पाकर एकदम अवाक् रह गए। वो तुरंत शिवजी को प्रणाम करके स्तुति करने लगे। तब शिवजी बोले- 'मैं तुम पर प्रसन्न हूं, वर मांगो।'
 
अर्जुन ने कहा- 'नाथ! मेरे ऊपर शत्रु का जो संकट मंडरा रहा था वह तो आपके दर्शन मात्र से ही दूर हो गया, अत: जिससे मेरी इहलोक की परासिद्धि हो, ऐसी कृपा करें।' 
 
शिवजी ने मुस्कुराते हुए अपना अजेय पशुपत अस्त्र देते हुए कहा- 'वत्स! इस अस्त्र से तुम सदा अजेय रहोगे। जाओ विजय को प्राप्त करो।' और फिर भगवान शिव अंतर्ध्यान हो गए। अर्जुन प्रसन्नचित हो अपने बंधुओं के पास लौट आए।

 
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