ख्वाजा बख्तियार की मजार पर मेला

दिल्ली का महरौली : एकता की मिसाल

Webdunia
- पंकज चतुर्वेद ी
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मुमताज महल ने अपने बेटे की रिहाई पर ख्वाजा बख्तियार की मजार पर फूलों की चादर चढ़ाई। उनकी इस खुशी में हिन्दुओं ने भी दरगाह के पास स्थित योग माया के मंदिर में फूलों के पंखे चढ़ाए।

दिल्ली के महरौली को 'हिन्दू-मुस्लिम एकता' की मिसाल के रूप में भी पहचाना जाता है। हर साल नवंबर महीने में यहाँ फूल वालों की सैर नामक अनूठा आयोजन होता है। इसकी शुरुआत 187 साल पहले मुगल काल में हुई थी।

सन 1806 से 1837 तक दिल्ली में अकबर द्वितीय का शासन था। उनके दो बेटे थे- सिराजुद्दीन जफर और मिर्जा जहांगीर। हालाँकि जहांगीर छोटा था, फिर भी पिता चाहते थे कि उनके बाद गद्दी वही सम्हाले। यह बात अँगरेज रेजीडेंट आर्चविल्ड सीटन को भी मालूम चली तो उसे एक सुनहरा मौका मिल गया। अँगरेज तो फूट डालो और राज करो की नीति पर चल रहे थे। उन्होंने तुरंत ही इस बात पर नाराजगी का परवाना भेज दिया कि बड़े बेटे के होते हुए छोटे को वारिस बनाने से अँगरेज सरकार खुश नहीं है।

उन दिनों मिर्जा जहांगीर मात्र 17 साल के थे। अपने राज्य के अंदरूनी मामलों में फिरंगियों की दखल उन्हें नागवार गुजरी। वे मन ही मन सीटन से नफरत करने लगे थे। एक दिन सीटन राजदरबार में आया तो जहांगीर ने उसका खूब मजाक बनाया।

अब सीटन का गुस्सा भी जिद और खीज में बदल गया। उसने बादशाह के फैसलों का हर कदम पर विरोध करना शुरू कर दिया। जहांगीर को यह सब असहनीय होता जा रहा था। उसने एक दिन लाल किले के नौबतखाने की छत से सीटन पर गोली चला दी। अँगरेज तो बच गया पर उसका कारिंदा मारा गया।

अँगरेजों ने मिर्जा जहांगीर को गिरफ्तार कर लिया और उसे इलाहाबाद जेल भेज दिया। जहांगीर की माँ मुमताज महल अपने बेटे की रिहाई की फरियाद लेकर पीर ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह पर गईं और मन्नत माँगी कि यदि जहांगीर सही-सलामत लौट आएगा, तो वह मजार पर फूलों की चादर चढ़ाएँगी।

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माँ की दुआ रंग लाई और मिर्जा जहांगीर को छोड़ दिया गया। जहांगीर रिहा होकर जब दिल्ली आए तो जनता ने उनका खूब स्वागत किया। अपने बेटे की रिहाई पर मुमताज महल ने ख्वाजा बख्तियार की मजार पर फूलों की चादर चढ़ाई। उनकी इस खुशी में हिन्दुओं ने भी जमकर शिरकत की और दरगाह के पास स्थित योग माया के मंदिर में फूलों के पंखे चढ़ाए।

यह बात सन्‌ 1812 की है। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के बाद अँगरेजों ने इस पर पाबंदी लगा दी। 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पहल पर इसे फिर 1963 में शुरू किया।

हिन्दू-मुस्लिम एकता की मिसाल बने इस मेले की रौनक आज भी बरकरार है। यह मेला देखने के लिए यहाँ देश-विदेश के लोग जुटते हैं। देश की शायद ही कोई ऐसी बड़ी शख्सियत हो जिसने ख्वाजा बख्तियार की शान में होने वाले इस मेले में शिरकत न की हो।

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