केवल भारत ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के सूज्ञ व्यक्ति भावपूर्ण अन्तःकरण से गीता जयंती का उत्सव प्रतिवर्ष मनाते हैं। किसी भी ग्रंथ का जन्मदिवस मनाया जाना यह कदाचित् सम्पूर्ण विश्व में गीता की ही विशेषता मानी जा सकती है।
गीता अर्थात् योगश्वर श्रीकृष्ण के मुखारविंद से स्रवित माधुर्य व सौंदर्य का वांगयीन स्वरूप! भगवान गोपालकृष्ण की प्रेम मुरली ने गोकुल में सभी को मुग्ध किया तो योगेश्वर कृष्ण की ज्ञान मुरली गीता ने कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर अर्जुन को युद्ध के लिए प्रवृत्त किया।
तबसे लेकर आज तक अनेक ज्ञानी, भक्त, कर्मयोगी, ऋषि, संत, समाजसेवक और चिंतक, फिर वे किसी भी देश या काल के हों, किसी धर्म या जाति के हों, उन सभी को गीता ने मुग्ध किया है।
' कृष्णस्तु भगवान स्वयं' से मुख से प्रवाहित इस वांगमय ने मानव को जीवन जीने की हिम्मत दी है। किसी भी विशिष्ट धर्मसंघ या सम्प्रदाय की धुन में न पड़कर गीताकार ने मानव जीवन के चिरंतन मूल्यों को गीता में ग्रथित किया है।
ऐसा अमूल्य ग्रंथ मानव मात्र को देकर भी कृष्ण की नम्रता कितनी अद्भुत है। भगवान स्वमुख से कहते हैं कि इसमें मेरा कुछ भी मौलिक नहीं है। 'ऋषिभिर्बहुधा गीतं' ऋषियों ने जो अनेक बार अनेक प्रकारों से गाया है, वही मैं फिर से कह रहा हूं।
भगवान की इस नम्रता से प्रसन्न होकर गाए हुए एक स्त्रोत में श्रीमदाद्यशंकराचार्य ने भगवान श्रीकृष्ण को 'मेघसुंदरम्' कहकर उनकी बिरुदावलि गाई है।
समुद्र से पानी खींचकर बनने वाले बादल का पानी भले ही उसका स्वयं का न हो, परंतु उस पानी की मिठास उसकी अपनी है। उसी तरह कदाचित् ज्ञान, विचार स्वयं के न भी हों फिर भी गीता का जो विरला ही माधुर्य है, वह श्रीकृष्ण का स्वयं का है ।