ज्ञान की ललक और पात्रता

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बड़े गुलाम अली खाँ साहब की गणना भारत के महानतम गायकों व संगीतज्ञों में की जाती है। वे विलक्षण मधुर स्वर के स्वामी थे। उनके गायन को सुनकर श्रोता अपनी सुध-बुध खोकर कुछ समय के लिए स्वयं को खो देते थे।

भारत के कोने-कोने से संगीत के पारखी लोग खाँ साहब को गायन के लिए न्यौता भेजते थे। क्या राजघराने, क्या मामूली स्कूल के विद्यार्थी, खाँ साहब की मखमली आवाज सभी को मंत्रमुग्ध कर देती थी।

एक बार पटना के एक संगीत विद्यालय ने एक स्वर संध्या का आयोजन किया और उसमें बड़े-बड़े संगीतकारों को आमंत्रित किया। खाँ साहब उस समारोह के मुख्य अतिथि थे। तय समय के पहले ही वे अपने साजिंदों के साथ आयोजन स्थल पर पहुँच गए।

कार्यक्रम प्रारंभ होने से पहले खाँ साहब ने संगीत के एक छात्र से पूछा, 'तुमने अब तक क्या-क्या सीख लिया है?' उस छात्र ने बड़े घमंड से कहा, 'अब मैं कुछ सीखता नहीं हूँ, मैंने स्वयं साठ राग तैयार कर लिए हैं।' दूसरे ने सत्तर राग, तीसरे ने पिचासी राग और चौथे छात्र ने तो सौ राग सीख लेने का दावा किया।

उन छात्रों की बातों से लगता था कि वे अब संगीत के मूर्धन्य पंडित बन चुके हैं और उन्हें किसी उस्ताद से कुछ और सीखने की जरूरत नहीं है।

जब खाँ साहब ने यह देखा कि उस विद्यालय के छात्रों में ज्ञान के प्रति ललक और समर्पण नहीं है तो उन्होंने अपने साजिंदों से साज बाँध लेने के लिए कहा क्योंकि वहाँ तो बड़े-बड़े ज्ञानी संगीतज्ञ थे।

आयोजकों ने उनसे रुकने के लिए बहुत अनुनय-विनय किया लेकिन खाँ साहब तो चल दिए। उन अनिच्छुक छात्रों को वे कुछ भी नहीं सिखा सकते थे।

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