बौद्धिकता, सत्ता एवं बुद्धि : कृष्णमूर्ति-5

आतंकवाद पर कृष्णमूर्ति के विचार

Webdunia
- अनुवाद प्रो. कावुल कानूनगो

ND
जो हम होना चाहते हैं उसका यह अनुसरण, भय को पालता है और भय सृजनात्मक सोच को मार देता है। भय मस्तिष्क और हृदय को सुस्त कर देता है। हम जीवन की समूची महत्ता के प्रति चौकन्ने नहीं रहते, हम हमारे अपने ही दु:खों की बाबद पक्षियों की हलचल के बारे में, अन्यों के सुख-दु:ख के विषय में संवेदनहीन हो जाते हैं।

सचेत और अचेत भय के अनेक भिन्न कारण हैं और एक चौकस निगरानी भाव के द्वारा उन सबसे छुटकारा पाया जा सकता है। अनुशासन, उत्कर्ष अथवा संकल्प के किसी भी कृत्य के द्वारा भय को दूर नहीं किया जा सकता। उसके कार्यकारणों को खोजना और समझना होगा। उसके लिए धीरज और चेतनता की जरूरत है, जिसमें किसी भी किस्म की कोई न्याय संगति नहीं है।

हमारे सचेत भयों को समझना और दूर करना तुलनात्मक दृष्टि से सरल है, लेकिन अचेत भय हममें से अनेक के द्वारा चीन्हे ही नहीं जाते, क्योंकि हम उन्हें सतह पर आने ही नहीं देते और जब कभी-कभार सतह पर आ ही जाएँ, हम उन्हें ढँकने को लपकते हैं, उनसे पलायन करते हैं। प्रच्छन्न भय स्वप्नों और संदेशों के अन्य रूपों के द्वारा अपनी उपस्थिति जाहिर करता है और वे सतही भयों की तुलना में ज्यादा बड़ी बर्बादी और संघर्ष उत्पन्न करते हैं।

हमारी जिंदगियाँ महज सतह पर ही नहीं हैं, उनका बड़ा भाग ऊपरी नजर से देखा नहीं जा सकता। यदि हम अपने दुर्बोध डरों को बाहर आने दें और विसर्जित होने दें तब सचेत दिमाग को बहुत कुछ स्थिर रहना होगा, अन्तकाल तक व्यस्त नहीं रखना होगा, फिर ये डर जब सतह पर आते हैं, उनको बिना छूट या बाधा के परखना चाहिए, क्योंकि किसी भी तरह की निंदा या समर्थन भय को गहराता ही है। सारे डर से मुक्त होने के लिए हमें उसके स्याह प्रभाव के प्रति सचेत रहना चाहिए और उसके अनेक कार्यकारणों को निरंतर चौकस रहकर उद्घाटित किया जा सकता है।

भय के प्रतिफलों में से एक है मानव घटना व्यापार में सत्ता की स्वीकृति। सत्ताभाव हमारे सही होने की इच्छा, सुरक्षित होने की लालसा, आरामदेह बने रहने की अभिलाषा, सचेत अंतर्द्वंद्वों या खलबलियों से दूर रहने की इच्छा के द्वारा रचा जाता है, लेकिन भय से प्रतिफलित ऐसा कुछ भी नहीं है कि जो हमारी समस्याओं को समझने में हमारी मदद करे, यद्यपि भय तथाकथित बुद्धिमत्ता के प्रति सम्मान और स्वीकृति का रूप ले सकता है। बुद्धिमत्ता किसी सत्ता को उत्पन्न नहीं करती और जो सत्तावान हैं, वे बुद्धिमान नहीं हैं। किसी भी प्रकार का भय हमारी स्वयं की और सभी चीजों के साथ हमारे संबंध की समझ को रोकता है।

सत्ता का अनुसरण बुद्धिहीनता है। सत्ता के स्वीकार का अर्थ किसी व्यक्ति या किसी समूह या किसी विचारधारा (चाहे वह राजनीतिक हो, चाहे धार्मिक हो) के आधिपत्य के आगे झुकना और उनकी अधीनता में रहना है और सत्ता के सामने इस समर्पण का मतलब है सिर्फ वैयक्तिक बुद्धिमत्ता का ही इंकार नहीं, वैयक्तिक स्वतंत्रता का भी नकार है। किसी पंथ अथवा विचारधारा का पालन आत्म सुरक्षात्मक प्रतिक्रिया है। सत्ता का स्वीकार हमारी कठिनाइयों और समस्याओं को सामयिक रूप से ढँक सकता है, लेकिन किसी समस्या को टालना उसे ज्यादा गहरा और सघन बनाना ही है तथा इस प्रक्रिया में आत्मज्ञान और मुक्ति पीछे छूट जाती है।

मुक्ति और सत्ता स्वीकार में कोई मैत्री नहीं हो सकती। यदि उनमें कोई 'मैत्री' है तो वे कि जो कहते हैं कि वे आत्मज्ञान और मुक्ति को प्राप्त करना चाहते हैं वे अपने उद्यम में ईमानदार नहीं हैं। ऐसा भी लगता है कि मुक्ति एक अंतिम किनारा है, एक लक्ष्य है और मुक्त होने के लिए हमें दबाव और भय के विभिन्न रूपों के आगे शुरू-शुरू में झुकना पड़ेगा। हम स्वीकारोक्ति के द्वारा मुक्ति हासिल करना चाहते हैं, लेकिन भूल करते हैं, क्योंकि रास्ता भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितना लक्ष्य होता है, बल्कि रास्ता ही लक्ष्य का स्वरूप बनाता है। ( क्रमश:)

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