योग्य उत्तराधिकारी कौन?

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पुराने समय की बात है। एक गुरु अपने आश्रम को लेकर बहुत चिंतित थे, क्योंकि गुरु वृद्ध हो चले थे और अब शेष जीवन हिमालय में ही बिताना चाहते थे। लेकिन उन्हें यह चिंता सताए जा रही थी कि मेरी जगह कौन योग्य उत्तराधिकारी हो, जो आश्रम को ठीक तरह से संचालित कर सके।

उनके आश्रम में दो योग्य शिष्य थे और दोनों ही गुरु को बहुत प्रिय थे। एक दिन गुरु ने उनको बुलाया और कहा - मेरे प्यारे शिष्यों, मैं तीर्थ पर जा रहा हूं और तुमसे गुरुदक्षिणा के रूप में बस इतना ही मांगता हूं कि यह दो मुट्ठी गेहूं है। एक-एक मुट्ठी तुम दोनों अपने पास संभालकर रखो और जब मैं आऊं तो मुझे यह दो मुठ्ठी गेहूं वापस करना है।

जो शिष्य मुझे अपने गेहूं सुरक्षित वापस कर देगा, मैं उसे ही इस गुरुकुल का गुरु नियुक्त करूंगा। दोनों शिष्यों ने गुरु की आज्ञा को शिरोधार्य रखा और गुरु को विदा किया।

उन दोनों शिष्यों में से एक गुरु को भगवान मानता था। उसने तो गुरु के दिए हुए एक मुट्ठी गेहूं की पोटली बांध कर एक आलिए में सुरक्षित रख दिए और रोज उसकी पूजा करने लगा। दूसरा शिष्य जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था, उसने उन एक मुट्ठी गेहूं को ले जाकर गुरुकुल के पीछे खेत में बो दिए।

कुछ महीनों बाद गुरु वापस आश्रम आए। उन्होंने अपने शिष्य जो उन्हें भगवान मानता था, उससे अपने एक मुट्ठी गेहूं वापस मांगे। उस शिष्य ने गुरु को ले जाकर आलिए में रखी गेहूं की पोटली दिखाई, जिसकी वह रोज पूजा करता था। गुरु ने देखा कि उस पोटली के गेहूं सड़ चुके हैं और अब वे किसी काम के नहीं रहे।

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फि र गुरु ने दूसरे शिष्य को जो गुरु को ज्ञान का देवता मानता था, उससे अपने गेहूं दिखाने के लिए कहा। दूसरे शिष्य ने गुरु को आश्रम के पीछे ले जाकर कहा - गुरुदेव! यह लहलहाती जो फसल देख रहे हैं यही आपके एक मुट्ठी गेहूं हैं। आप मुझे क्षमा करें कि जो गेहूं आप दे गए थे, वही गेहूं मैं वापस दे नहीं सकता।

गुरु उसके द्वारा बोए गए गेहूं की लहलहाती फसल देखकर प्रसन्न चित्त हो गए। उन्होंने कहा- जो शिष्य गुरु के ज्ञान को फैलाता है, बांटता है, वही गुरु का श्रेष्ठ उत्तराधिकारी होने का पात्र है। वास्तव में गुरु के प्रति सच्ची दक्षिणा यही है।

गुरु ने कहा - गुरुदक्षिणा का सामान्य अर्थ में पारितोषिक के रूप में लिया जाता है, किंतु गुरुदक्षिणा का वास्तविक अर्थ कहीं ज्यादा व्यापक है। महज पारितोषिक नहीं। गुरुदक्षिणा का अर्थ है कि गुरु से प्राप्त की गई शिक्षा एवं ज्ञान का प्रचार-प्रसार व उसका सही उपयोग कर जनकल्याण में लगाएं। गुरु ने अपने दूसरे शिष्य से प्रभावित होकर उसे आश्रम का उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया।

इस कहानी का तात्पर्य यह ‍है कि जैसे सूर्य बिना कहे सबको प्राण ऊर्जा देता है, मेघ जल बरसाता है, हवा भी बिना किसी भेदभाव व लालच के ठंडक पहुंचा कर सभी को जीवित रखती है और फूल भी अपनी महक में कोई कसर नहीं रखता, वैसे ही गुरुजन भी स्वयं ही शिष्यों की भलाई में लगे रहते हैं। ( वेबदुनिया डेस्क)

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