शरद पूर्णिमाः कहाँ गए वो दिन

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- राजश्री कासलीवा ल
वर्तमान युग में बदलते समय के साथ-साथ सबकुछ बदल-बदल सा गया है। कई छोटे-मोटे त्योहार ऐसे हैं जिन्हें हम सिर्फ पुरानी किताबों में पढ़कर ही अपने दिल में समेट लेते हैं। आज बहुत टीस चुभती है कि इन त्योहारों का महत्व कहीं खो-सा गया है।

यहाँ मैं बात कर रही हूँ ऐसे ही एक त्योहार शरद पूर्णिमा (कोजागिरी पूर्णिमा) की। आज से 20-30 वर्ष पूर्व जब हम छोटे थे तब त्योहार में जो मजा था, जो जीवंतता थी, आज वह इस भीड़ भरी दुनिया में कहीं गुम हो गई है। मुझे बहुत अच्छे से याद हैं वो दिन...

जब हम शरद पूर्णिमा के दिन पूरे परिवार के साथ चाँद भरी उस रात का बहुत ही मजेदार तरीके से आनंद उठाया करते थे। माँ सभी के लिए स्पेशल साबूदाने की खीर, नमकीन परमल, भेल और भी बहुत कुछ बनाती थी। पापा हमारे लिए मौ सम ी फल लेकर आते थे। और पूरा परिवार रात को बारह-एक बजे तक जागकर छत पर चाँद का दीदार करते हुए मजे करता, अंताक्षरी और ताश खेलता।

हम बच्चे साइकल के पहिए में गुब्बारे बाँधकर उन्हें पूरे मोहल्ले में उस साइकल को घुमाते और उस चलते साइकल के पहिए से निकलती गुब्बारे की किर्र-किर्र..... की आवाज सुनकर इतने खुश होते थे कि आज सोचकर हँसी आती है।

पर बचपन ऐसा ही होता है। आज बच्चों को देखती हूँ तो सोचती हूँ कि इन्हें भी खुश होने का अधिकार है लेकिन क्या कृत्रिम माध्यमों से उन्हें वह आह्लादित करने वाली खुशी मिल पा रही है? कहना मुश्किल है।

आज सब बेगाने हो गए हैं। न तो वह समाँ है, न ही वह समय। और बदलते समय ने इस हालत पर लाकर खड़ा कर दिया है जहाँ सिर्फ यादें ही बाकी हैं।

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