स्वामी दयानंद की ज्ञान गंगा

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एक छोटी-सी ज्ञान-गोष्ठी में स्वामी दयानंद के कुछ भक्त बैठे थे। उनमें से एक ने कहा- 'स्वामीजी, जो कुछ मैं पूछना चाहता हूँ वह आपके निजी जीवन से संबंध रखता है, इसलिए पूछते हुए संकोच हो रहा है।'

स्वामीजी बोले- 'आचार्य और शिष्य का संबंध आवरणरहित होता है। जानते नहीं मशाल के साथ अँधेरा भी रहता ही है- भले ही हम मात्रा में नगण्य ही क्यों न हों, इसलिए निःसंकोच होकर पूछो।'

तब उस महानुभाव ने पूछा- 'महाराज, क्या कभी काम ने आपको नहीं सताया?' प्रश्न सचमुच बड़ा बेढब था। यह सुन स्वामीजी ने नेत्र मींच लिए और समाहित से हो गए।

फिर बोले, 'प्रश्न सचमुच ही समझदारी का है। शिष्यों को गुरु से और गुरु को शिष्यों से कुछ भी छिपाकर नहीं रखना चाहिए, तभी तो शिष्य उच्च बन सकते हैं। अस्तु, काम मेरे समीप नहीं आया, न ही मैंने उसे देखा है। यदि आया भी होगा, तो मेरे मस्तिष्क और हृदय के द्वारों को बंद देखकर निराश ही लौट गया होगा। मेरे मस्तिष्क और हृदय को वेद-भाष्यादि के लेखन तथा शास्त्रार्थों से अवकाश ही कहाँ मिलता है, जिससे बचे समय में मेरे हृदय तथा मस्तिष्क का द्वार बाहर को खुले और मैं इस निम्न दैहिक स्तर पर आकर यहाँ के दृश्य देखूँ, सुनूँ और उस पर ध्यान दूँ?'

इतने में एक सज्जन ने पूछा, 'महाराज, अपराध क्षमा करें। क्या आप स्वप्न में भी कभी काम से पीड़ित नहीं हुए?' इस पर दयानंदजी ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया- 'भाई जब काम को मेरे अंतर में प्रवेश करने के लिए द्वार ही नहीं दिखाई दिया, तब वह क्रीड़ा भी कैसे और किससे करता? जहाँ तक मेरी स्मृति साथ दे रही है, इस शरीर से शुक्र की एक बूँद भी बाहर नहीं गई है।' सुनकर सब अवाक्‌ रह गए। भला इतना उच्च जीवन कितने मानवों से सध सकेगा?

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