सब कुछ अर्पण करना, सबका सम्मान करना ही पूजा है: गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर

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सम्मान करना दिव्य प्रेम का लक्षण है। इसी सम्मान को पूजा कहते हैं। पूजा से भक्ति पनपती है। जो कुछ प्रकृति हमारे लिए करती है हम उसी की नकल पूजा की विधि में करते हैं। परमात्मा भिन्न-भिन्न रूपों में हमारी पूजा कर रहे हैं। हम पूजा द्वारा वह सब ईश्वर को वापस अर्पित करते हैं।
 
पूजा में जो फूल चढ़ाए जाते हैं वे फूल प्रेम के प्रतीक हैं। ईश्वर माता-पिता,पति-पत्नि, मित्र, बच्चे आदि अलग-अलग रूपों में हमसे प्रेम करने आते हैं। वही प्रेम, गुरु के रूप में आकर हमें परमात्मा स्वरूप तक पहुंचाता है जो कि हमारा सच्चा स्वभाव है। जिस प्रेम से हमारा जीवन फल-फूल रहा है उस प्रेम को मान्यता देना ही पूजा में फूल को अर्पण करना है।
 
परमात्मा हमें हर एक मौसम में तरह-तरह के फल देते हैं। हम उन्हीं फलों को परमात्मा को अर्पित करते हैं। प्रकृति हमें भोजन देती है, हम बदले में भगवान को अनाज चढ़ाते हैं। इसी तरह प्रकृति में चंद्रमा व सूर्य प्रतिदिन उदय और अस्त होकर हमें लगातार प्रकाश देते हैं। हम उसी की नकल करके कपूर व दीपक से ईश्वर की आरती करते हैं। सुगन्ध के लिये धूप जलाते हैं। पूजा में पांचों इन्द्रियों का पूरे भाव से प्रयोग करते हैं। पूर्ण कृतज्ञता और सम्मान का भाव ही अर्चना है।
 
आपने बच्चों को देखा होगा, वे अपने छोटे-छोटे बर्तनों से खेलते हैं और चाय व रोटी बनाते हैं। फिर मां के पास आकर बोलते हैं, 'मां आप चाय पीजिए।' वे खाली कप से भी ऐसे कल्पना करते हैं जैसे सचमुच चाय पी रहे हों। वे आपके साथ खेल खेलते हैं। जैसा आप उनके साथ करते हैं, वे भी आपके साथ वैसा ही करते हैं। कभी वे गुड़िया को सुलाते हैं, खाना खिलाते हैं, नहलाते हैं। ऐसे ही पूजा में हम ईश्वर के साथ वही करते हैं जो ईश्वर हमारे साथ कर रहे हैं। पूजा नकल, सम्मान, खेल, प्रेम सबका सम्मिश्रण है। 
अधिकतर हम जिससे प्रेम करते हैं उसको पाना चाहते हैं। किसी चीज को पाने की चाह, उस सुन्दर वस्तु को कुरूप कर देती है। पूजा में इसके विपरीत होता है, आप पूजा में सम्मान के साथ स्वयं समर्पित हो जाते हैं और सुन्दरता को पहचान कर उसकी उपासना व प्रशंसा करते हैं। अधिकार जताने के ठीक विपरीत हम पूजा में अर्पण करना चाहते हैं।
 
अधिकार जताने की चाह के कारण कई बार आपके सम्बंध भी पूर्णत: विकसित नहीं हो पाते। हम मांगना शुरु कर देते हैं। सम्बन्धों में लोग अधिकांशत: कहते हैं, 'मैंने तो आपके लिए इतना किया है– बदले में आपने मेरे लिए क्या किया?'  मांग,  सम्मान करने के विपरीत है। सम्बन्ध को बनाए रखने के लिए उसमें सम्मान का होना आवश्यक है। 
 
सृष्टि का सम्मान करें। एक वृक्ष को भी सम्मान के साथ देखें। वृक्ष के अस्तित्व के लिये कृतज्ञ रहें। वह हमारे लिए वायु को शुद्ध करता है। क्या आपने ऐसा कभी सोचा है कि वृक्ष, सूर्य, चंद्रमा, वायु, जल, पृथ्वी, तारे-सितारे सभी आपके हैं? सभी व्यक्ति आपके हैं? यदि सृष्टि का सम्मान करेंगे तो यह अनुभव करेंगे कि ये सभी आपके हैं।
 
अपने शरीर का सम्मान करें। भोजन करते समय अनुभव करें कि वह भोजन आप अपने भीतर विराजमान भगवान को भोग लगा रहे हैं। अक्सर लोग जब व्याकुल होते हैं तो अधिक भोजन खा लेते हैं पर खाना जल्दबाज़ी में या आक्रोष में न खाकर श्रद्धा भाव के साथ, प्रसाद के रूप में ग्रहण करना चाहिये – यह भी एक पूजा है।
 
क्या आपने कभी अपनी सांसों को सम्मानपूर्वक देखा है? क्या आपने कभी सोचा कि यह भीतर-बाहर चलती सांसें कितनी सुन्दर हैं? इसके बिना शरीर व्यर्थ है। सांसों को सम्मानपूर्वक देखें। सम्मान से श्रद्धा और श्रद्धा से समर्पण होता है। परमात्मा में समर्पित होने से बेचैनी और इच्छाओं से मुक्त होकर हमें पूर्ण विश्राम मिलता है। तरह-तरह की इच्छाओं ने हमें ज्वरित करके जीवन भर दौड़ाया जिससे हर तरफ से हमें थकान मिली। विभिन्न दिशाओं में दौड़ते हुए जीवन में भक्ति एक पीड़ा निवारक मरहम बनकर गहन विश्राम लाती है।  
 
मन को सदैव आकर्षण, चमत्कार, घटनाएं व रोमांच चाहिए और जब उसे यह मिल जाता है तो आकर्षण समाप्त हो जाता है। मन का आकर्षण मृग तृष्णा जैसा है। हमेशा वह किसी दूसरी चीज़ की, दूसरी जगह की, लालसा करता रहता है। पर भक्ति की लौ मन की ललक को, मोम की तरह पिघला देती है। मन के पिघलते ही भक्ति जीवित होकर अधिक प्रघाढ़ हो जाती है।
 
आकर्षण बाह्यजन्य है जबकि भक्ति भीतर से पुलकित होती है। भक्ति आपके अंतरतम से ही आरंभ होती है पर आकर्षण आपको अपने सच्चिदानन्द स्वरूप से दूर बहिर्मुखता में ले जाता है। आकर्षण अधिक समय तक कभी नहीं टिकता है। बिना ईश्वरीय भक्ति के जीवन में बेचैनी सी बनी रहती है। पूजा द्वारा यही ज्वर, प्रेम में परिणीत हो जाता है। भक्ति में तपने से ईश्वर के प्रति तड़प भी पैदा होगी। प्रेम के साथ तड़प होना स्वाभाविक है। जहां तड़प है वहां जान लें कि प्रेम भी है। वे एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। अधिकतर मिलने की तड़प होने पर हम उसे समाप्त करने की जल्दबाज़ी में रहते हैं। पर भक्ति की पराकाष्ठा में यह सारा ज्वर ईश्वरीय प्रेम में परिवर्तित हो जाएगा।  
 
भक्ति आपका स्वभाव है। अपने स्वभाव में रहकर विश्राम करने से कोई द्वन्द नहीं रहता। पर अक्सर आप द्वन्द अनुभव करते हैं। आपको अपने किसी विकार के प्रति या किसी बुरे कृत्य के प्रति बुरा लगता है। गुरु वे हैं जो आपके ऐसे सारे बोझ उठा लेते हैं जिन्हें आप स्वयं नहीं उठा पाते और आपके भीतर भक्ति की लौ जला देते हैं। अपना क्रोध, कुण्ठा, बुरी भावनाएं, अच्छी भावनाएं सब कुछ गुरु को अर्पण कर दें। नकारात्मकता आपको नीचे खींचती हैं। आपके सद्गुण आपमें अहंकार और झूठी शान लाते हैं। आपका पूरा जीवन एक बड़ा बोझ बन जाता है। सब कुछ अर्पण करके आप मुक्त हो जाते हैं। आप फूल जैसे हल्के हो जाते हैं। आप फिर प्रतिक्षण आनन्दित होकर मुस्कुरा सकते हैं। आपके भीतर शुद्ध प्रेम ही शेष रहता है।
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