नास्तिक होने का सत्य, जानिए...

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
अनीश्वरवादी और नास्तिक होने में थोड़ा फर्क है। अनीश्वरवादी का मतलब जो ईश्वर को नहीं मानता है और नास्तिक होने का मतलब है कि ईश्वर है या नहीं यह मैं नहीं जानता। हालांकि दोनों का अर्थ एक ही प्रकार से ध्वनित होता है। कुछ भी हो...सत्य यह है कि आस्तिकता की मंजिल पर पहुंचने के लिए नास्तिकता का रास्ता पार करना होता है। यदि आप मार्क्सवादी या वामपंथी तरह के नास्तिक हैं तो असल में आप नास्तिक नहीं बल्कि नए तरह के आस्तिक ही हैं। किसी भी विचारधारा का फलोअर बनना ही प्राथमिक आस्तिकता होती है।
ठीक-ठीक नास्तिक हुए बगैर आप ठीक-ठीक आस्तिक नहीं बन सकते। आप वामपंथी, सांप्रदायिक, कट्टरपंथी और तथाकथित धार्मिक जरूर बन सकते हैं क्योंकि आपने मार्क्स या धर्मग्रंथों से रेडिमेड उत्तर प्राप्त कर उसे सत्य मान लिया है, अब आपके लिए सत्य को जानने के सभी द्वार बंद है। आखिर नास्तिकता क्या है?
 
बौद्ध दर्शन को संसार का सबसे घोर नास्तिक दर्शन या धर्म माना जाता है। बुद्ध के कारण ही दुनिया में ईश्वरवादी धर्मों का प्रचलन बढ़ा और उन्होंने सबसे ज्यादा बौद्ध धर्म को ही नुकसान पहुंचाया। बुतपरस्ती शब्द भगवान बुद्ध की वजह से ही प्रचलन में आया।
 
माना जाता है कि दुनिया के प्रमुख नास्तिक दर्शन या धर्म में चर्वाक, जैन और बौद्ध का प्रमुख स्थान और महत्व है। सभी तरह की नास्तिक विचारधारा या दर्शन का मूल उद्‍गम यही तीन धर्म हैं। नास्तिक कहने से यह आभासीत होता है कि ये धर्म ईश्वर को नहीं मानते हैं, जबकि चर्वाक को छोड़ दें तो बाकी दोनों धर्म का दृष्टिकोण इस संबंध में बिलकुल अलग है।
 
बौद्ध धर्म ईश्वर के होने या नहीं होने पर चर्चा नहीं करता, क्योंकि यह बुद्धिजाल से ज्यादा कुछ नहीं है। यह अव्याकृत प्रश्न है। उनका मानना है कि इस प्रश्न को आप तर्क या अन्य किसी भी तरह से हल नहीं कर सकते। ईश्वर के होने या नहीं होने की बहस का कोई अंत नहीं। ठीक उसी तरह कि स्वर्ग-नरक है या नहीं? मूल प्रश्न यह है कि व्यक्ति है और वह दुःख तथा बंधन में है। उसके दुःख व बंधन का मूल कारण खोजो और मुक्त हो जाओ। आष्टांगिक मार्ग पर चलकर दुःख व बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है। यही आर्य सत्य है।
 
जैन दर्शन अनुसार अस्तित्व या सत्ता के सात तत्वों में से दो तत्व प्रमुख हैं- जीव और अजीव। जीव है चेतना या जिसमें चेतना है और अजीव है जड़ अर्थात जिसमें चेतना या गति का अभाव है। जीव दो तरह के होते हैं एक वे जो मुक्त हो गए और दूसरे वे जो बंधन में हैं। इस बंधन से मुक्ति का मार्ग ही कैवल्य का मार्ग है। स्वयं की इंद्रियों को जीतने वाले को जिनेंद्र या जितेंद्रिय कहते हैं। यही अरिहंतो का मार्ग है। जितेंद्रिय बनकर जीओ और जीने दो यही जिन सत्य है।
 
चर्वाक या लोकायत दर्शन स्पष्ट तौर पर 'ईश्वर' के अस्तित्व को नकारते हुए कहता है कि यह काल्पनिक ज्ञान है। तत्व भी पांच नहीं चार ही हैं। आकाश के होने का सिर्फ अनुमान है और अनुमान ज्ञान नहीं होता। जो प्रत्यक्ष हो रहा है वही ज्ञान है अर्थात दिखाई देने वाले जगत से परे कोई और दूसरा जगत नहीं है। आत्मा अजर-अमर नहीं है। वेदों का ज्ञान प्रामाणिक नहीं है।
 
चर्चाव अनुसार यथार्थ और वर्तमान में जीयो। ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग-नरक, नैतिकता, अनैतिकता और तमाम तरह की तार्किक और दार्शनिक बातें व्यक्ति को जीवन से दूर करती हैं। इसीलिए खाओ, पियो और मौज करो। उधार लेकर भी यह काम करना पड़े तो करो। इस जीवन का भरपूर मजा लो यही चर्वाक सत्य है।
 
अंतत: जैन और बौद्ध दर्शन की शिक्षा 'मुक्ति' की शिक्षा है। स्वयं को जानने की शिक्षा है। सत्य और अहिंसा की शिक्षा है किंतु चर्वाक दर्शन पूरी तरह से भौतिकवादी दर्शन होने के कारण इसका भारतीय दर्शन, धर्म और समाज में कोई महत्व नहीं रहा। हालांकि कालांतर में इस दर्शन का पश्‍चिमी दर्शन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।
 
समाज में यह धारणा प्रचलित है कि यह दर्शन आत्मा के अस्तित्व को भी नकारता है। उनकी (चर्वाक) दृष्टि में देह ही आत्मा है और मृत्यु ही मोक्ष है। शायद यही कारण रहा कि छठी शताब्दी आते-आते इस दर्शन के मूलग्रंथ और मान्यताएं अपना अस्तित्व खो बैठीं, लेकिन यह दर्शन पश्‍चिम में दूसरे तरीके से फैला। इस दर्शन को भी वैदिक दर्शन जितना पुराना ही माना जाता है।
 
कुछ लोग यह कहते और लिखते भी हैं कि बौद्ध धर्म भी आत्मा के अस्तित्व को नहीं मानता, जबकि यह गलत माना गया है। निर्वाण आत्मा को ही प्राप्त होता है किसी और को नहीं। इंद्रियविहीन 'शुद्ध चैतन्य' इस तरह से होता है जैसे कि है ही नहीं। भगवान बुद्ध ने कहा था कि 'अपने दिए खुद बनो।' दूसरों के दीपक से तुम्हारा दीपक कभी नहीं जल पाएगा।
 
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