इन 12 लोगों ने अपना शहर छोड़ा और बदल दी दुनिया

Webdunia
धर्म-अधर्म की जंग, प्राकृतिक आपदा और वैराग्य भाव के चलते दुनिया के कई ऐसे समाज, कौम या धार्मिक समूह रहे हैं जिनको अपने देश या स्थान को छोड़कर किसी अन्य देश या स्थान पर जाना पड़ा। लेकिन हम बात कर रहे हैं उनक महापुरुषों की जिन्हें जब अपना शहर या जन्मभूमि किसी कारणवश छोड़ना पड़ी तो उन्होंने दुनिया के धर्म, समाज और इतिहास को पलट कर रख दिया।
 
हो सकता है कि आप कुछ लोगों को तो जानते ही होंगे लेकिन यह भी हो सकता है कि कुछ को नहीं जानते होंगे। यहां आज हम आपको बताएंगे कि आश्चर्यजनक रूप में उन सभी लोगों में एक समानता या संयोग जरूर है कि उन्होंने अपना शहर छोड़ा और नई जगह जाकर वह कार्य किया जिसका प्रभाव दुनिया में आज तक कायम है।

श्रीराम का अयोध्या निकाला : भगवान श्रीराम को वनवास हुआ और उन्हें अपनी जन्मभूमि, अपना नगर, राजसी वस्त्र आदि सभी कुछ छोड़कर चले गए थे। अपने चौदह वर्ष के वनवास काल में उन्होंने क्या क्या किया यह सभी जानना चाहेंगे।
 
इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा और विद्या ग्रहण की, तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह के भारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया। संपूर्ण भारत को उन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछ ऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया।
 
रामायण में उल्लेखित और अनेक अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जब भगवान राम को वनवास हुआ तब उन्होंने अपनी यात्रा अयोध्या से प्रारंभ करते हुए रामेश्वरम और उसके बाद श्रीलंका में समाप्त की। इस दौरान उनके साथ जहां भी जो घटा उनमें से 200 से अधिक घटना स्थलों की पहचान की गई है।
 
जाने-माने इतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम और सीता के जीवन की घटनाओं से जुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पता लगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम और सीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदि स्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की।

कृष्ण क्यों गए थे द्वारिका : यदुवंशी कृष्ण ने उनके क्रूर मामा राजा कंस का वध कर दिया था तो कंस के श्वसुर मगधपति जरासंध ने कृष्ण और यदुओं का नामोनिशान मिटा देने की ठान रखी थी। वह मथुरा और यादवों पर बारंबार आक्रमण करता था। उसके कई मलेच्छ और यवनी मित्र राजा थे।

अंतत: यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने मथुरा को छोड़ने का निर्णय लिया। विनता के पुत्र गरूड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कृष्ण कुशस्थली आ गए। वर्तमान द्वारिका नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही विद्यमान थी, कृष्ण ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी को पुनः बसाया।
 
कृष्ण अपने 18 नए कुल-बंधुओं के साथ द्वारिका आ गए। यहीं 36 वर्ष राज्य करने के बाद उनका देहावसान हुआ। द्वारिका के समुद्र में डूब जाने और यादव कुलों के नष्ट हो जाने के बाद कृष्ण के प्रपौत्र वज्र अथवा वज्रनाभ द्वारिका के यदुवंश के अंतिम शासक थे, जो यदुओं की आपसी लड़ाई में जीवित बच गए थे। द्वारिका के समुद्र में डूबने पर अर्जुन द्वारिका गए और वज्र तथा शेष बची यादव महिलाओं को हस्तिनापुर ले गए। कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। वज्रनाभ के नाम से ही मथुरा क्षेत्र को ब्रजमंडल कहा जाता है।
 
ईसा से लगभग 3221 वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ। महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान कृष्ण ने एक बाण लगने के कारण देह छोड़ दी थी। 119 वर्ष की उम्र में कृष्ण ने देह छोड़ी थी।
 
भगवान कृष्ण ने जब मथुरा छोड़ी थी, तब वे अपने खानदान के 18 कुल (समुदाय) के साथ द्वारिका चले गए थे। यह दुनिया का पहला इतने बड़े पैमाने पर पलायन था। इसके बाद मूसा के साथ मिस्र छोड़कर उनके कुल के लोग यरुशलम गए थे। गुजरात के समुद्र तट पर उन्होंने द्वारिका नाम से भव्य नगर बसाया था। यह स्थान उनके प्राचीन पूर्वज यदु का स्थान भी माना जाता है।

ह. इब्राहीम : बाढ़ के 350 साल बाद हज. नूह की मौत हो गई। नूह के मरने के ठीक 2 साल बाद इब्राहीम का जन्म हुआ। एक दिन यहोवा (ईश्‍वर) ने इब्राहीम से कहा- ‘तुम इस शहर, ऊर को और अपने रिश्तेदारों को छोड़ दो और उस देश को जाओ, जो मैं तुम्हें दिखाऊंगा।’
 
जब इब्राहीम ने ऊर शहर छोड़ा तो उनके परिवार के कुछ लोग भी उनके साथ गए। साथ आए लोगों में उनकी पत्नी सारा, उनके पिता तेरह और उनके भाई का बेटा लूत। रास्ते में हारान शहर में इब्राहीम के पिता की मौत हो गई। हजरत इब्राहीम को ऊर इसलिए छोड़ना पड़ा, क्योंकि उन्होंने उस शहर के एक मंदिर को ध्वस्त कर बुतपरस्ती के खिलाफ आवाज बुलंद की थी।
 
इब्राहीम और उनका परिवार हारान शहर से निकलकर कनान देश पहुंचा। वहां यहोवा ने इब्राहीम से कहा, ‘मैं यही देश तुम्हारे बच्चों को दूंगा।’ इब्राहीम वहीं रुक गए और तंबुओं में रहने लगे। एक दिन यहोवा ने इब्राहीम की परीक्षा ली। उस परीक्षा की याद में ही बकरीद मनाई जाती है। इब्राहीम के दो बेटे थे- इसहाक और जेकब।
 
प्राचीन मेसोपोटामिया (वर्तमान इराक तथा सीरिया) में सामी मूल की विभिन्न भाषाएं बोलने वाले अक्कादी, कैनानी, आमोरी, असुरी आदि कई खानाबदोश कबीले रहा करते थे। इन्हीं में से एक कबीले का नाम हिब्रू था। वे यहोवा को अपना ईश्वर और इब्राहीम को आदि पितामह मानते थे। उनकी मान्यता थी कि यहोवा ने अब्राहम और उनके वंशजों के रहने के लिए इसराइल देश नियत किया है।
 
इब्राहीम मध्य में उत्तरी इराक से कानान चले गए थे। वहां से इब्राहीम के खानाबदोश वंशज और उनके पुत्र इसाक और जेकब, जो तब तक 12 यहूदी कबीले बन चुके थे, मिस्र चले गए। मिस्र में उन्हें कई पीढ़ियों तक गुलाम बनकर रहना पड़ा।
 
अगली बार जब ह. इब्राहीम मक्का आए तो अपने पुत्र इस्माइल से कहा कि यहोवा ने मुझे हुक्म दिया है कि इस जगह एक घर बनाऊं। तब उन्होंने खाना-ए-काबा का निर्माण किया। निर्माण के दौरान इस्माइल पत्थर ढोकर लाते और ह. इब्राहीम उन्हें जोड़ते।

हजरत मूसा : मूसा का जन्म ईसा पूर्व 1392 को मिस्र में हुआ था। उस काल में मिस्र में फेरो का शासन था। उनका देहावसान 1272 ईसा पूर्व हुआ। ह. इब्राहीम के बाद यहूदी इतिहास में सबसे बड़ा नाम 'पैगंबर मूसा' का है। ह. मूसा ने यहूदी धर्म को एक नई व्यवस्था और स्‍थान दिया। उन्होंने मिस्र से अपने लोगों को ले जाकर इसराइल में बसाया। यहूदियों के कुल 12 कबीले थे जिनको बनी इसराइली कहा जाता था। माना जाता है कि इन 12 कबीलों में से एक कबीला उनका खो गया था। शोधानुसार वही कबीला कश्मीर में आकर बस गया था।
 
प्राचीन मेसोपोटामिया (वर्तमान इराक तथा सीरिया) में सामी मूल की विभिन्न भाषाएं बोलने वाले अक्कादी, कैनानी, आमोरी, असुरी आदि कई खानाबदोश कबीले रहा करते थे। इन्हीं में से एक कबीले का नाम हिब्रू था। वे यहोवा को अपना ईश्वर और इब्राहीम को आदि पितामह मानते थे। उनकी मान्यता थी कि यहोवा ने अब्राहम और उनके वंशजों के रहने के लिए इसराइल देश नियत किया है।
 
इब्राहीम मध्य में उत्तरी इराक से कानान चले गए थे। वहां से इब्राहीम के खानाबदोश वंशज और उनके पुत्र इसाक और इस्माइल, जो तब तक 12 यहूदी कबीले बन चुके थे, मिस्र चले गए। मिस्र में उन्हें कई पीढ़ियों तक गुलाम बनकर रहना पड़ा। मिस्र में वे मिस्रियों के साथ रहते थे, लेकिन दोनों ही कौमों में तनाव बढ़ने लगा तब मिस्री फराओं के अत्याचारों से तंग आकर हिब्रू कबीले के लोग लगभग ई.पू. 13वीं शताब्दी में वे मूसा के नेतृत्व में पुन: अपने देश इसराइली कानान लौट आए।
 
लौटने की इस यात्रा को यहूदी इतिहास में 'निष्क्रमण' कहा जाता है। इसराइल के मार्ग में सिनाई पर्वत पर मूसा को ईश्वर का संदेश मिला कि यहोवा ही एकमात्र ईश्वर है अत: उसकी आज्ञा का पालन करें, उसके प्रति श्रद्धा रखें और 10 धर्मसूत्रों का पालन करें। मूसा ने यह संदेश हिब्रू कबीले के लोगों को सुनाया। तत्पश्चात अन्य सभी देवी-देवताओं को हटाकर सिर्फ यहोवा की आराधना की जाने लगी। इस प्रकार यहोवा की आराधना करने वाले यहूदी और उनका धर्म यहूदत कहलाया।

जरथुस्त्र : इतिहासकारों का मत है कि जरथुस्त्र 1700-1500 ईपू के बीच हुए थे। यह लगभग वही काल था, जबकि दूसरी ओर हजरत इब्राहीम अपने धर्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। कुछ इतिहासकार मानते हैं कि फारस के शहंशाह विश्तास्प के शासनकाल में पैगंबर जरथुस्त्र ने दूर-दूर तक भ्रमण कर अपना संदेश दिया। उनके इस संदेश के कारण ही कुछ समूह उनका विरोधी हो चला था जिसके चलते अपने अनुयायियों के साथ वे उत्तरी ईरान में जाकर बस गए थे। भारत के कई इतिहासकारों द्वारा संत जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है।
 
प्राचीन फारस (आज का ईरान) जब पूर्वी यूरोप से मध्य एशिया तक फैला एक विशाल साम्राज्य था, तब ईशदूत जरथुस्त्र ने एक ईश्वरवाद का संदेश देते हुए पारसी धर्म की नींव रखी थी।
 
7वीं सदी ईस्वी तक आते-आते फारसी साम्राज्य अपना पुरातन वैभव तथा शक्ति गंवा चुका था। जब अरबों ने इस पर निर्णायक विजय प्राप्त कर ली तो अपने धर्म की रक्षा हेतु लाखों की तादाद में जरथोस्ती धर्मावलंबी समुद्र के रास्ते भाग निकले और उन्होंने भारत के पश्चिमी तट पर शरण ली। अनेक ने कजाकिस्तान में शरण ली।

भगवान महावीर स्वामी : भगवान महावीर तीर्थंकरों की कड़ी के अंतिम तीर्थंकर हैं। उनका जन्म नाम वर्धमान है। राजकुमार वर्धमान के माता-पिता श्रमण धर्म के पार्श्वनाथ सम्प्रदाय से थे। महावीर से 250 वर्ष पूर्व 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए थे। पार्श्वनाथजी के काल में ही श्रमण परंपरा को व्यवस्थित रूप दिया गया था।
 
भगवान महावीर का जन्म 27 मार्च 598 ई.पू. अर्थात 2615 वर्ष पहले वैशाली गणतंत्र के कुंडलपुर के क्षत्रिय राजा सिद्धार्थ के यहां हुआ। उनकी माता त्रिशला लिच्छवि राजा चेटकी की पुत्र थीं। भगवान महावीर ने सिद्धार्थ-त्रिशला की तीसरी संतान के रूप में चैत्र शुक्ल की तेरस को जन्म लिया।
 
महावीर की शिक्षा : वर्धमान के बड़े भाई का नाम नंदिवर्धन व बहन का नाम सुदर्शना था। वर्धमान का बचपन राजमहल में बीता। आठ बरस के हुए, तो उन्हें पढ़ाने, शिक्षा देने, धनुष आदि चलाना सिखाने के लिए शिल्प शाला में भेजा गया।
 
विवाह मतभेद : श्वेताम्बर संघ की मान्यता है कि वर्धमान ने यशोदा से विवाह किया था। उनकी बेटी का नाम था अयोज्जा या अनवद्या। जबकि दिगम्बर संघ की मान्यता है कि उनका विवाह हुआ ही नहीं था। वे बाल ब्रह्मचारी थे।
 
श्रामणी दीक्षा : महावीर की उम्र जब 28 वर्ष थी, तब उनके माता-पिता का देहान्त हो गया। बड़े भाई नंदिवर्धन के अनुरोध पर वे दो बरस तक घर पर रहे। बाद में तीस बरस की उम्र में वर्धमान ने श्रमण परंपरा में श्रामणी दीक्षा ले ली। वे 'समण' बन गए। अधिकांश समय वे ध्यान में ही मग्न रहते। इस प्रकार से तीस वर्ष का कुमार काल व्यतीत हो जाने के बाद एक दिन स्वयं ही भगवान् को जाति स्मरण हो जाने से वैराग्य हो गया।
 
कैवल्य ज्ञान : भगवान महावीर ने 12 साल तक मौन तपस्या तथा गहन ध्‍यान किया। अन्त में उन्हें 'कैवल्य ज्ञान' प्राप्त हुआ। कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने के बाद भगवान महावीर ने जनकल्याण के लिए शिक्षा देना शुरू की। अर्धमगधी भाषा में वे प्रवचन करने लगे, क्योंकि उस काल में आम जनता की यही भाषा थी।

गौतम बुद्ध : एक नदी के पानी के लिए क्षत्रियों के दो दलों में आपसी युद्ध होता रहता था। एक न खत्म होने वाला युद्ध। बुद्ध ने कहा कि हिंसा से हिंसा ही बढ़ती है। एक रात बुद्ध ने अपना देश और घरबार छोड़ दिया। जब बुद्ध को निर्वाण उपलब्ध हुआ, तब उनकी पत्नी ने पूछा- आपने जो हासिल किया, क्या वह यहां मेरे पास रहकर हासिल नहीं हो सकता था? बुद्ध ने कहा कि जरूर हो सकता था, लेकिन भटके बगैर नहीं।
कौशाम्बी नरेश की महारानी भगवान बुद्ध से घृणा करती थी। एक बार जब भगवान बुद्ध कौशाम्बी आए तो महारानी ने उन्हें परेशान और अपमानित करने के लिए कुछ विरोधियों को उनके पीछे लगा दिया। गौतम बुद्ध के शिष्य आनंद उनके साथ हमेशा रहते थे, जो कि गौतम बुद्ध के प्रति इस खराब व्यवहार देख दुःखी हो गए।
 
परेशान होकर आनंद ने भगवान बुद्ध से कहा कि भगवान, ये लोग हमारा अपमान करते हैं। क्यों न इस शहर को छोड़कर कहीं और चल दें? भगवान बुद्ध ने आनंद से प्रश्न किया कि कहां जाएं? आनंद ने कहा कि किसी दूसरे शहर, जहां इस तरह के लोग न हों। तब गौतम बुद्ध बोले कि अगर वहां भी लोगों ने ऐसा अपमानजनक व्यवहार किया तो? शिष्य आनंद बोला कि तो फिर वहां से भी किसी दूसरे शहर की ओर चलेंगे और फिर वहां से भी किसी दूसरे शहर।
 
तथागत ने गंभीर होकर कहा कि नहीं आनंद, ऐसा सोचना ठीक नहीं है। जहां कोई मुश्किल पैदा हो, कठिनाइयां आएं, वहीं डटकर उनका मुकाबला करना चाहिए, वहीं उनका समाधान किया जाना चाहिए। जब वे हट जाएं तभी उस स्थान को छोड़ना चाहिए। ध्यान रखो, मुश्किलों को वहीं छोड़कर आगे बढ़ना पलायन है, किसी समस्या का हल नहीं।

ईसा मसीह : यीशु का जन्म : एक यहूदी बढ़ई की पत्नी मरियम (मेरी) के गर्भ से यीशु का जन्म बेथलेहेम में हुआ। ईसा जब बारह वर्ष के हुए, तो यरुशलम में दो दिन रुककर पुजारियों से ज्ञान चर्चा करते रहे। सत्य को खोजने की वृत्ति उनमें बचपन से ही थी। बाइबिल में उनके 13 से 29 वर्षों के बीच का कोई ‍जिक्र नहीं मिलता, ऐसा माना जाता है। 30 वर्ष की उम्र में उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे।
सूली : सन 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर यरुशलम पहुँचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। उनके शिष्य जुदास ने उनके साथ विश्‍वासघात किया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। ईसा ने क्रूस पर लटकते समय ईश्वर से प्रार्थना की, 'हे प्रभु, क्रूस पर लटकाने वाले इन लोगों को क्षमा कर। वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं।'
 
ईसा मसीह ने 13 साल से 29 साल तक क्या किया, यह रहस्य की बात है। बाइबल में उनके इन वर्षों के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता है। अपनी इस उम्र के बीच ईसा मसीह भारत में शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। 30 वर्ष की उम्र में येरुशलम लौटकर उन्होंने यूहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा के बाद वे लोगों को शिक्षा देने लगे। ज्यादातर विद्वानों के अनुसार सन् 29 ई. को प्रभु ईसा गधे पर चढ़कर येरुशलम पहुँचे। वहीं उनको दंडित करने का षड्यंत्र रचा गया। अंतत: उन्हें विरोधियों ने पकड़कर क्रूस पर लटका दिया। उस वक्त उनकी उम्र थी लगभग 33 वर्ष।
 
कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि उसके बाद ईसा मसीह पुन: भारत लौट आए थे। इस दौरान भी उन्होंने भारत भ्रमण कर कश्मीर के बौद्ध और नाथ सम्प्रदाय के मठों में गहन तपस्या की। जिस बौद्ध मठ में उन्होंने 13 से 29 वर्ष की उम्र में शिक्षा ग्रहण की थी उसी मठ में पुन: लौटकर अपना संपूर्ण जीवन वहीं बिताया।
 
कश्मीर में उनकी समाधि को लेकर हाल ही में बीबीसी पर एक रिपोर्ट भी प्रकाशित हुई है। रिपोर्ट अनुसार श्रीनगर के पुराने शहर की एक इमारत को 'रौजाबल' के नाम से जाना जाता है। यह रौजा एक गली के नुक्कड़ पर है और पत्थर की बनी एक साधारण इमारत है जिसमें एक मकबरा है, जहाँ ईसा मसीह का शव रखा हुआ है। श्रीनगर के खानयार इलाके में एक तंग गली में स्थिति है रौजाबल।
 
आधिकारिक तौर पर यह मजार एक मध्यकालीन मुस्लिम उपदेशक यूजा आसफ का मकबरा है, लेकिन बड़ी संख्या में लोग यह मानते हैं कि यह नजारेथ के यीशु यानी ईसा मसीह का मकबरा या मजार है। लोगों का यह भी मानना है कि सन् 80 ई. में हुए प्रसिद्ध बौद्ध सम्मेलन में ईसा मसीह ने भाग लिया था। श्रीनगर के उत्तर में पहाड़ों पर एक बौद्ध विहार का खंडहर हैं जहाँ यह सम्मेलन हुआ था।

ह. मुहम्मद (स.अ.व) : इस्लामिक प्रचार के चलते ह. मुहम्मद (स.अ.व) को विरोध का सामना करना पड़ रहा था। इसी बीच पैगंबर के दो बड़े सहयोगियों हजरत अबुतालिब तथा हजरत खदीजा का स्वर्गवास हो गया। जब पैगंबर मक्का में अकेले रह गए, तो अल्लाह का हुक्म हुआ कि मक्का छोड़कर मदीना चले जाओ। पैगंबर ने इस आदेश का पालन किया और रात्रि के समय मक्का से मदीना की ओर प्रस्थान किया। मक्का से मदीना की यह यात्रा हिजरत कहलाती है तथा इसी यात्रा से हिजरी सन् आरंभ हुआ। पैगंबरी की घोषणा के बाद पैगंबर 13 वर्षों तक मक्का में रहे।
मदीना में पैगंबर को नए सहयोगी प्राप्त हुए तथा उनकी सहायता से पैगंबर ने इस्लाम का प्रचार अधिक दृढ़ता से किया। इससे मक्का और मदीना के दूसरे धर्मों की चिंता बढ़ती गई तथा वे युद्ध करने पर उतारू हो गए। इस प्रकार पैगंबर को मक्कावासियों से कई युद्ध करने पड़े जिनमें विरोधियों को पराजय का सामना करना पड़ा।
 
अंत में पैगंबर ने मक्का जाकर हज करना चाहा, परंतु मक्कावासी इससे सहमत नहीं हुए तथा पैगंबर ने शक्ति के होते हुए भी युद्ध नहीं किया तथा संधि करके मानव-मित्रता का परिचय दिया तथा संधि की शर्तानुसार हज को अगले वर्ष तक के लिए स्थगित कर दिया। सन् 10 हिजरी में पैगंबर ने 1,25,000 मुसलमानों के साथ हज किया तथा मुसलमानों को हज करने का प्रशिक्षण दिया।
आदि शंकराचार्य : शंकराचार्य ने हिंदू धर्म को व्यवस्थित करने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने हिंदुओं की सभी जातियों को इकट्ठा करके 'दसनामी संप्रदाय' बनाया और साधु समाज की अनादिकाल से चली आ रही धारा को पुनर्जीवित कर चार धाम की चार पीठ का गठन किया जिस पर चार शंकराचार्यों की परम्परा की शुरुआत हुई।
 
शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहां हुआ। मात्र बत्तीस वर्ष की उम्र में वे निर्वाण प्राप्त कर ब्रह्मलोक चले गए। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए चार मठों ही स्थापना की। चार मठ के शंकराचार्य ही हिंदुओं के केंद्रिय आचार्य माने जाते हैं, इन्हीं के अधिन अन्य कई मठ हैं।
 
शंकराचार्य के चार शिष्य : 1. पद्मपाद (सनन्दन), 2. हस्तामलक 3. मंडन मिश्र 4. तोटक (तोटकाचार्य)। माना जाता है कि उनके ये शिष्य चारों वर्णों से थे। यह दस संप्रदाय निम्न हैं : 1.गिरि, 2.पर्वत और 3.सागर। इनके ऋषि हैं भ्रगु। 4.पुरी, 5.भारती और 6.सरस्वती। इनके ऋषि हैं शांडिल्य। 7.वन और 8.अरण्य के ऋषि हैं काश्यप। 9.तीर्थ और 10. आश्रम के ऋषि अवगत हैं।
महायोगी गुरु गोरखनाथ : सिद्धों की भोग-प्रधान योग-साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथपंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। इस पंथ को चलाने वाले मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) तथा गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) माने जाते हैं। इस पंथ के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है। कहा यह भी जाता है कि सिद्धमत और नाथमत एक ही हैं।
 
गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।
 
गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।
 
गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
 
गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे।
 
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठिन (आड़े-तिरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि 'यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।' 
 
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है। 
 
सिद्ध योगी : गोरखनाथ के हठयोग की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं :- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि। 13वीं सदी में इन्होंने गोरख वाणी का प्रचार-प्रसार किया था। यह एकेश्वरवाद पर बल देते थे, ब्रह्मवादी थे तथा ईश्वर के साकार रूप के सिवाय शिव के अतिरिक्त कुछ भी सत्य नहीं मानते थे। 
 
नाथ सम्प्रदाय गुरु गोरखनाथ से भी पुराना है। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। पूर्व में इस समप्रदाय का विस्तार असम और उसके आसपास के इलाकों में ही ज्यादा रहा, बाद में समूचे प्राचीन भारत में इनके योग मठ स्थापित हुए। आगे चलकर यह सम्प्रदाय भी कई भागों में विभक्त होता चला गया।

ओशो रजनीश : ओशो का जन्म चन्द्र मोहन जैन के नाम से दिसम्बर 11, 1931 को कुच्वाडा, मध्यप्रदेश में हुआ था। अपने 11 भाई बहनों में वे सबसे बड़े थे। उनके माता का नाम सरस्वती जैन और पिता का नाम बाबूलाल जैन था। उनके पिता एक कपड़ों के व्यापारी थे। उन्होंने अपना बचपन अपने दादा-दादी के साथ बिताया। 21 मार्च 21 वर्ष की उम्र में उन्हें संबोधि घटित हुई और 19 जनवरी 1990 को उनको निर्वाण प्राप्त हुआ अर्थात वे दुनिया से चले गए। 
osho
संबोधि घटित होने के बाद उनकी जिंदगी बदल गई और वे चंद्र मोहन जैन से आचार्य रजनीश बन गए। अमेरिका जाने के बाद वे ओशो बन गए और दुनिया भर में घुमकर उन्होंने धर्मों और राजनीति के पाखंड को उजागर कर कई मुल्कों को अपना दुश्मन बना लिया। अंत में उन्हें जहर देकर मार दिया गया।
Show comments

Bhagwat katha benefits: भागवत कथा सुनने से मिलते हैं 10 लाभ

Vaishakha amavasya : वैशाख अमावस्या पर स्नान और पूजा के शुभ मुहूर्त

Dhan yog in Kundali : धन योग क्या है, करोड़पति से कम नहीं होता जातक, किस्मत देती है हर जगह साथ

Akshaya tritiya 2024 : 23 साल बाद अक्षय तृतीया पर इस बार क्यों नहीं होंगे विवाह?

Varuthini ekadashi: वरुथिनी एकादशी का व्रत तोड़ने का समय क्या है?

कालाष्टमी 2024: कैसे करें वैशाख अष्टमी पर कालभैरव का पूजन, जानें विधि और शुभ समय

Aaj Ka Rashifal: राशिफल 01 मई: 12 राशियों के लिए क्या लेकर आया है माह का पहला दिन

Vastu Tips For Stairs : सीढ़ियों की दिशा, घुमाव, संख्या, ऊंचाई-चौड़ाई से तय होगा आपका भविष्य

01 मई 2024 : आपका जन्मदिन

Marriage: पति पत्नी के बीच कितना होना चाहिए उम्र का फासला?

अगला लेख