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महाप्रभु वल्लभाचार्य की जयंती, सूरदास को बताया था कृष्‍ण भक्ति का मार्ग

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Vallabhacharya Jyanati 2020
इस घोर पूंजीवादी युग में, जहां सब तरफ अनैतिकता का बोलबाला है और अश्लीलता युग का मुहावरा बन चुकी है, वहां कविता और वह भी निर्मल कविता की बात करना लगभग पागलपन ही माना जाएगा। तो भी साहित्य का विद्यार्थी और सारी जिंदगी कवि कर्म में होम कर चुकने के बाद हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि शुद्ध और श्रेष्ठ कविता की दृष्टि से सूरदास से ज्यादा मोहक कवि हिंदी कविता में दूसरा नहीं हुआ। तुलसी भी हैं मगर वह दृष्टाकवि हैं, मंत्र लिखते हैं।
 
सूरदास हमें कभी न मिलते अगर सूरदास को वल्लभाचार्य न मिलते। कौन थे वल्लभाचार्य और क्या है उनका अवदान? इसे इस तरह समझें। पहले हुए शंकराचार्य, जिन्होंने घोषणा की- यह जो दिखाई देने वाली दुनिया है- झूठ है। सत्य सिर्फ ब्रह्म है। फिर आए रामानुजाचार्य, उन्होंने कहा खेल सिर्फ दो का नहीं तीन का है। चेतन है पहले फिर अचित यानी जड़ तत्व और इन दोनों का समन्वय है ईश्वर। चितित्व और जड़ या अचित दोनों स्वतंत्र लगते तो हैं मगर ये दोनों किसी के अधीन हैं और ये जिसके अधीन वह है ईश्वर है।
 
रामानुज के बाद आते हैं मध्वाचार्य। उन्होंने कहा- माया भी अलग है ब्रह्म भी अलग, दोनों कभी मिलते ही नहीं इसलिए न अद्वैत ठीक, न विशिष्टाद्वैत, सब तरफ सब समय द्वैत ही द्वैत है। फिर इसके बादर हुए आचार्य निंबार्क उन्होंने कहा, 'द्वैत और अद्वैत दोनों की सत्ता है' इसलिए उन्होंने अपने सिद्धांत को नाम दिया द्वैताद्वैत। इसके बाद हमारा परिचय शुद्धाद्वैत सिद्धांत से होता है जिसके प्रवर्तक हुए वल्लभाचार्य।
 
उन्होंने कहा कि ब्रह्म के तीन रूप हैं- आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक। आधिभौतिक ब्रह्म क्षर पुरुष है वही प्रकृति या जगतरूप है। आध्यात्मिक ब्रह्म अक्षर ब्रह्म है। जबकि आधिदैविक ब्रह्म परब्रह्म है। क्षर पुरुष से अक्षर ब्रह्म और अक्षर से भी श्रेष्ठ है परब्रह्म। इसी ब्रह्म को गीताकार ने पुरुषोत्तम ब्रह्म कहा है।
 
वल्लभाचार्य ने कारण और कार्य को अलग-अलग न मानते हुए एक उदाहरण दिया है- कहा है कि एक लपेटा हुआ वस्त्र या सूत का गोला छोटे से छोटा हो सकता है मगर जैसे ही उसे खोलना या घसीटना शुरू करो तो यही गोला विस्तीर्ण होता चला जाता है। ठीक इसी तरह आविर्भाव दशा में जगत और तिरोभाव दशा में ब्रह्म है।
 
 
उत्पत्ति, स्थिति और लय हो जाने वाला यह जगत सही अर्थों में प्रभु की लीला है। लीला का कोई उद्देश्य नहीं होता। कार्य की निण्णत्ति हो गई तो हो गई, नहीं हुई तो नहीं हुई। जब सभी कुछ हो भी रहा हो और होने के साथ-साथ नहीं भी होता चल रहा हो अथवा फिर-फिर होकर फिर-फिर न होता चला जा रहा हो तो उसे लीला कहते हैं। लीला का अर्थ है खेल, खिलवाड़, क्रीड़ा, विनोद, मनोरंजन आदि।
 
वल्लभाचार्य ने अपने सिद्धांत को पुष्टि मार्ग बताया। वल्लभ ने प्रभु को अनुग्रह ही पुष्टि या पोषण है कहने के साथ-साथ यह भी कह दिया कि जिन्हें पुरुषोत्तम कहा जाता है वे और कोई नहीं स्वयं लीलापुरुष कृष्ण है। अपने को अंशरूप में जीवों में बिखराना सिर्फ उन्हें आता है। पुरुषोत्तम कृष्ण की सभी लीलाएं नित्य हैं।
 
यह दुनिया, यह संसार उन्हीं के क्रीड़ाभाव के कारण आविर्भाव और तिरोभाव के बीच उबरता-डूबता रहता है। वल्लभ ने जीव तीन प्रकार के बताए हैं। पुष्टि जीव जो कृष्ण के अनुग्रह पर भरोसा करते हैं। दूसरे मर्यादा जीव, जो शास्त्र के अनुसार जीवन जीते हैं और तीसरे वे जीव जो संसार के प्रवाह में पड़े रहते हैं।
 
वल्लभाचार्य जब आगरा-मथुरा रोड पर यमुना के किनारे-किनारे वृंदावन की ओर आ रहे थे तभी उन्हें एक अंधा दिखाई पड़ा जो बिलख रहा था। वल्लभ ने कहा तुम रिरिया क्यों रहे हो? कृष्ण लीला का गायन क्यों नहीं करते?
 
सूरदास ने कहा- मैं अंधा मैं क्या जानूं लीला क्या होती है? तब वल्लभ ने सूरदास के माथे पर हाथ रखा। विवरण मिलता है कि पांच हजार वर्ष पूर्व के ब्रज में चली श्रीकृष्ण की सभी लीला कथाएं सूरदास की बंद आंखों के आकाश पर तैर गईं।
 
अब वल्लभ उन्हें वृंदावन ले लाए और श्रीनाथ मंदिर में होने वाली आरती के क्षणों में हर दिन एक नया पद रचकर गाने का सुझाव दिया। इन्हीं सूरदास के हजारों पद सूरसागर में संग्रहीत हैं। इन्हीं पदों का गायन आज भी धरती के कोने-कोने में, जहां कहीं श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम पुरुष मानने वाले रह रहे हैं, एक निर्मल काव्यधारा की तरह बह रहा है।

- कैलाश वाजपेयी

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