न्यायप्रिय राजा विक्रमादित्य और विक्रम संवत्

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रामायण, महाभारत पुराण आदि में वर्णित राजा तथा इतिहास प्रसिद्ध प्रद्योत, नंद, चंद्रगुप्त, समुद्रगुप्त आदि अनेक राजा हैं, परंतु जो दिगन्तव्यापिनी कीर्ति और यश विक्रमादित्य को प्राप्त हुआ, वह यश अन्य किसी राजा को प्राप्त नहीं हुआ। प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार विक्रमादित्य ऐतिहासिक व्यक्ति हैं, परंतु अनेक पाश्चात्य और भारतीय विद्वान भारतीय परंपरा को विश्वासयोग्य नहीं मानकर विक्रमादित्य का ऐतिहासिक अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। उनके मतानुसार विक्रमादित्य किसी विशेष व्यक्ति का नाम न होकर विरुद मात्र था, जो चन्द्रगुप्त, शिलादित्य आदि ने धारण किया। 




विक्रम संवत् पहले मालव संवत था
 
भारतवर्ष का सबसे अधिक प्रचलित संवत् 'विक्रम संवत्' है। साहित्यिक कृतियों में उल्लिखित राजा विक्रमादित्य इस संवत् के प्रवर्तक माने जाते हैं। विक्रमादित्य ने शकों का उन्मूलन कर शकों पर विजय के उपलक्ष्य में इस संवत् का प्रवर्तन किया। विक्रम संवत् का शिलालेखों में उल्लेख- 
 
पहले यह संवत् मालव संवत् कहलाता था। अनेक शिलालेखों में इसे मालव संवत् कहा गया है। सबसे पहले धौलपुर से प्राप्त चण्ड महासेन के वि.स. 898 (ई.सं. 841) के निम्न लेख में विक्रम के नाम का प्रयोग मिलता है- 
 
'वसु नव अष्टौ वर्षागतस्य कालस्य विक्रमाख्यस्य।'
 
इसके पूर्व के लेखों और ताम्रपत्रों में विक्रम के स्‍थान पर कृत और मालव के नाम का उल्लेख है- 
 
1. श्रीर्मालवगणाम्नाते प्रशस्ते कृत संज्ञिते।
 
2. कृतेषु चतुर्षुं वर्ष शतेष्वे काशीत्युत्तरेष्वस्थां मालवपूर्वायां (मालव संवत् 481) 
 
शकों ने मालवगणों पर आधिपत्य कर लिया था। विक्रमादित्य नामक उनके नेता ने मालवगणों की सहायता से शकों का उन्मूलन कर दिया। इस राष्ट्रीय विजय की स्मृति में नया संवत् चलाया तथा 'मालवानां जय:' से अंकित सिक्के भी चलवाए।
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