अंतिम सत्य है ईश्वर की अनुभूति

संसार : प्राकृतिक शक्तियों का खेल

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संसार में प्राकृतिक शक्तियों का खेल हो रहा है। पृथ्वी, चंद्र आदि ग्रहों की गति खेल या नृत्य के समान है। वस्तुतः मनुष्य जन्म लेकर अभिनय करने के लिए इस संसार रूपी रंग मंच पर आता है। मृत्यु के साथ अभिनय पूरा हो जाता है। अतः उस साक्षी चैतन्य की अनुभूति हो जाने पर जीवन का नाटक सार्थक हो जाता है।

योगदर्शन में एक सूत्र है -
' मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनाताश्चित्तप्रसादनम्‌।'

- अर्थात सुखी व्यक्ति से मैत्री करो, दुःखी व्यक्ति पर करुणा, पुण्यात्मा को देखकर प्रसन्न होओ और (पापी) की उपेक्षा करो। परंतु ना समझ लोग सुखी व्यक्ति से द्वेष करते हैं और उसे अपना शत्रु बना लेते हैं। दुःखी व्यक्ति की सहायता करने की बजाय उसे कोरी सहानुभूति देते हैं। उसके संपर्क में अपने आपको बड़ा समझने का मौका मिलता है।

जब किसी को हानि होती है तो चेहरे पर तेज आ जाता है, और हम शोक प्रकट करने चल देते हैं, किसी पुण्यात्मा को देखकर उस पर पाखंडी होने का संदेह होता है। पापी की निंदा और आलोचना करते हैं, इससे वह क्रोध में आकर और अधिक पाप करता है तथा शत्रु बन जाता है। यदि उसकी उपेक्षा की जाए तो वह सुधर जाता है और हम भी शांत रहते हैं।

प्रत्येक कार्य शौच, स्नान, भोजन, सोना, जागना आदि यदि आवश्यकता के समय किए जाए तो उस समय मन विचार-शून्य होता है अर्थात्‌ प्रसन्न और शांत होता है। मनुष्य को व्यवसाय भी अपनी रुचि या स्वभाव के अनुसार चुनना चाहिए, उससे सुख स्वयं उत्पन्न होता है। सुख शौक के काम की उप-उत्पत्ति है। सुख स्वयं मिलने वाली चीज है, जैसे हम गेहूं और चावल अपने खाने के लिए बोते हैं। तो उनकी खेती से पशुओं के लिए भूसा अपने आप मिल जाता है।

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मिट्टी के तेल को साफ करते हैं उससे कचरा (पैराफीन हार्ड) निकलता है। उससे मोमबत्तियां और नकली कपूर बन जाता है। विशेष यंत्र बनाने के लिए लोहे को जब उबाला जाता है तो गुड़ के शीरे की तरह जो उसके ऊपर मैल आती है। उससे घटिया किस्म की कैंचियां, पाइप वाली खाट एवं कुर्सियां बन जाती हैं।

अंग्रेजी में एक कविता है कि तितली को बगीचे में अगर पकड़ने के लिए दौड़ो तो वह हाथ नहीं आती। परंतु आप चुपचाप बैठ जाओ या घूमते रहो तो वह स्वयं आकर कंधे पर बैठ जाती है। इसी प्रकार जो व्यक्ति मोक्ष या ईश्वर को ध्येय बनाकर पाने का प्रयत्न करते हैं, उन्हें मोक्ष कभी नहीं मिलता वे व्यर्थ ही साधना का बोझ ढोते हैं।

जिस साधना पद्धति से आपको प्रेम है। जिसे करने में खुशी होती है, वह साधना ही ईश्वर तक पहुंचा सकती है। ध्यान ईश्वर प्राप्ति में नहीं, बल्कि साधना से प्राप्त होने वाली खुशी में ही होना चाहिए वही गहराई में जाकर मोक्ष का आनंद बनती है।

शौक के काम में मनुष्य तल्लीन हो जाता है, जो एक गहरी प्रसन्नता होती है, उसमें थकावट भी नहीं होती और फल की इच्छा नहीं होती, केवल कर्म ही प्रसन्नतादायक होता है। कर्म स्वयं निष्काम हो जाता है। यह निष्कामता ही ईश्वर की भक्ति है। क्रीड़ायाम्‌ खेलना धातु से बना है। अतः देवता का अर्थ है खिलाड़ी।

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