अनासक्त कर्म : ईश्वर दर्शन का सच्चा मार्ग

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अश्वघोष को वैराग्य हो गया। भोग-विलास से अरुचि और संसार से विरक्ति हो जाने के कारण उसने गृह त्याग कर दिया। जंगल में जाकर रहने लगे। कंद-मूल खाकर गुजारा करते, पेड़ों की छाया में रहते और अपने इष्ट देवता का स्मरण करते। इस तरह समय बीतने लगा, लेकिन एक खालीपन निरंतर महसूस होता था।

ईश्वर दर्शन की अभिलाषा से वह जहाँ-तहाँ भटका, पर शांति न मिली। समय बीतने पर उन्हें नई दिनचर्या से भी परेशानी होने लगी। भाँति-भाँति के व्यंजन खाने और नियत समय पर भोजन करने का अभ्यास था। अब वह अभ्यास टूट गया था, क्योंकि समय पर शायद ही कभी भोजन मिलता हो। कई दिन से अन्ना के दर्शन न होने से क्षुधार्त और थके हुए अश्वघोष एक बार एक खलिहान के पास पहु ँचे। वहाँ एक किसान शांति व प्रसन्न मुद्रा में अपने काम में लगा था। उसे देखकर अश्वघोष ने पूछा-मित्र! आपकी प्रसन्नता का रहस्य क्या है?

ईश्वर दर्शन, उसने संक्षिप्त उत्तर दिया। उसका उत्तर सुनकर अश्वघोष ने किसान से प्रार्थना की कि मुझे भी उस परमात्मा के दर्शन कराइए? मैं भी उसी की तलाश में हूँ।

अच्छा कहकर किसान ने थोड़े चावल निकाले। उन्हें पकाया, दो भाग किए, एक भाग स्वयं के लिए, दूसरा अश्वघोष के लिए। दोनों ने चावल खाए, खाकर किसान अपने काम में लग गया। कई दिन का थका होने के कारण अश्वघोष सो गया।

प्रचंड भूख में भोजन और कई दिन के थकान के कारण गहरी नींद आ गई। जब वह सोकर उठा तो उस दिन जैसी शांति, हल्का-फुल्का, उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था। किसान जा चुका था और वह अश्वघोष का क्षणिक वैराग्य भी मिट गया था। उसने अनुभव किया अनासक्त कर्म ही ईश्वर दर्शन का सच्चा मार्ग है।

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