ऋषियों का उपदेश हैं स्वाध्याय

महाव्रत हैं स्वाध्याय

Webdunia
- आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी
ND

शास्त्रों में स्वाध्याय को महाव्रत कहा है। शिष्य के दीक्षा समारोह में यही कहा गया है कि 'सत्यमं वद्, धर्ममंचर, स्वाध्यान्‌ मा प्रमदः' वस्तुतः असीम रहस्यपूर्ण इस मायामय जगत के मोहजाल में फंसकर मानव प्रतिदिन पाप-पुण्य, नीति-अनीति संलिप्त रहने पर भी आनन्दामृत की पिपासा का त्याग नहीं कर सकता।

चूंकि आनंद तो उसका स्वाभाविक धर्म है, आनन्द ही उसका स्वरूप है, किंतु भ्रांतिवश वह स्वात्मानन्द को भूल जाता है, खो देता है और जहां-जहां विषयानन्द के कण दिखाई देते हैं वहां-वहां वह फंस जाता है तथा समस्त आनन्द के खजाने को भूलकर कर जगत्‌ में चक्कर लगाता रहता है।

असत्य का अनुगमन करने पर किस तरह सुख प्राप्त हो सकता है? परमात्मा पर पूर्ण विश्वास ही आनन्द की प्राप्ति का मुख्य हेतु है। सत्यद्रष्टा वैदिक महर्षि ने अपने शिष्यों के माध्यम से मानव के कल्याण पथ प्रदर्शन करते हुए एक महत्वपूर्ण व्रत का उपदेश दिया है और यह व्रत है- 'स्वाध्यायव्रत' ऋषियों का उपदेश है 'स्वाध्यायान्मा प्रमदः' अर्थात्‌ स्वाध्याय से प्रमाद मत करना।

श्रुतियों तथा सद्ग्रंथों का अध्ययन आवश्यक है। श्री गंगाधर जी का कहना है स्वाध्याय का गूढ अर्थ आत्माध्ययन अर्थात्‌ स्वयं का स्वयं ही अध्ययन करना है। शरीर, मन तथा इन्द्रियों के साथ आत्मा का क्या संबंध है। यह खोज कर परम सत्य की उपलब्धि करनी चाहिए।

जो सब प्राणियों का अंतर्यामी अद्वितीय एवं सबको वश में रखनेवाला अपने एक ही रूप को बहुत प्रकार से बना लेता है। उसे अपने अंदर रहनेवाले को जो ज्ञानीपुरुष निरंतर देखते रहते हैं, उन्हीं को ही सदा अटल रहने वाला परमानन्दस्वरूप वास्तविक सुख प्राप्त होता है, दूसरों को नहीं।

ND
बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है कि आत्मा ही द्रष्टव्य, श्रोतव्य, मन्तव्य तथा निदिध्यासितव्य है। इन सभी का तात्पर्य यह है कि यह मनुष्य शरीर ही देवालय है, जहां आत्मदेव विद्यमान है। भाग्य हीन व्यक्ति ही परमात्मा की उपासना करने में आलस्य करता है। अतः ही दुर्भाग्यशाली हैं जो परमात्मा की उपासना नहीं करते।

श्रीमद्भगवद्गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन की मोह की आसक्ति का विनाश करने के लिए आत्मा का अमरत्व, स्वधर्म की महिमा, अनासक्त कर्मयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग आदि की शिक्षा देते हुए अंत में संपूर्ण धर्मों अर्थात्‌ कर्तव्यकर्मों को त्याग कर केवल एक सर्वशक्तिमान सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में जाने के लिए निर्भर संस्तुति दी है।

मानव स्वयं ही अमृतसंतान है। सांसारिक मोहपाश में ही आबद्ध होकर वह स्वधर्म को भूल जाता है तथा किंकर्तव्यविमूढ़ होता है। स्वाध्यायव्रत निष्ठा के माध्यम से वह तत्व को प्राप्त कर लेता है। आत्मज्ञान जागृत होने पर निरर्थक वस्तुओं की उपेक्षापूर्वक मानव निवृत्ति मार्ग का अनुगामी होता है एवं परमात्मा में ही समर्पित होकर अपने अमृत योग की प्राप्ति के साथ स्वधाम लौटने के लिए प्रयत्नशील होता है।

स्वाध्याय व्रत के परिपाल में संलग्न रहकर अपने स्वरूप का ज्ञान कर लेता है। स्वाध्याय से सत्य की निष्ठा तथा आत्मनिष्ठा दृढ़तर होती जाती है। तत्व ज्ञात होने पर श्रेष्ठ एवं महान शांति की धारा प्रवाहित होती है एवं ऐसी आत्मा कैवल्य अर्थात्‌ ब्रह्म को प्राप्त होता है। अतः स्वाध्याय को कभी नहीं छोड़ना चाहिए और परमब्रह्म की प्राप्ति के उपाय का ही अवलम्बन करना चाहिए।

Show comments
सभी देखें

ज़रूर पढ़ें

4 भयंकर योग के चलते 5 राशियों को रहना होगा इस साल संभलकर

बढ़ता ही जा रहा है गर्मी का तांडव, क्या सच होने वाली है विष्णु पुराण की भविष्यवाणी

भविष्यवाणी: ईरान में होगा तख्तापलट, कट्टरपंथी खामेनेई की ताकत का होगा अंत!

ओडिशा के पुरी में जगन्नाथ रथ यात्रा कहां से निकलकर कहां तक जाती है?

जब मेहर बाबा ने पहले ही दे दिया था विमान दुर्घटना का संकेत, जानिए क्या था वो चमत्कार?

सभी देखें

धर्म संसार

विश्व योग दिवस 2025: पढ़ें 15 पावरफुल स्लोगन, स्वस्थ रखने में साबित होंगे मददगार

Ahmedabad Plane Crash: प्लेन का लोहा पिघल गया लेकिन कैसे बच गई भागवत गीता?

वर्ष का सबसे लंबा दिन 21 जून को, जानें कारण और महत्व

भविष्यवाणी: 5 भविष्यवाणियां सच होकर ही रहेगी, कोई टाल नहीं सकता

क्या भविष्य मालिका की भविष्यवाणी जुड़ी है जगन्नाथ मंदिर के 10 संकेतों से?