प्रचलित कथाओं के अनुसार काशी के राजा दिलेदास द्वारा काशी में देवताओं के प्रवेश पर लगाई गई रोक को कार्तिक पूर्णिमा पर हटा लिए जाने तथा त्रिपुर नामक राक्षस पर देवताओं की विजय के अवसर पर देव दीपावली देवताओं द्वारा मनाई गई थी।
देव दीपावली के अवसर पर मुख्य कार्यक्रम काशी के प्रमुख दशाश्वमेध घाट और राजेंद्र प्रसाद घाट पर महाआरती का आयोजन किया गया। दोनों ही स्थानों पर 21-21 आरती दीपों से गंगा की आरती संपन्न हुई। शहीदों की याद में दीपक जलाए गए और उन्हें सलामी दी गई। गंगा की धारा में हजारों नावों और बजड़ों (दो मंजिली बड़ी नावों) पर बैठे दर्शनार्थियों ने इस अद्भुत दृश्य को देखा।
वाराणसी के सभी होटल लॉज और धर्मशालाएं पहले से ही बुक थीं। नावों के लिए लोगों को हजारों रुपए की मल्लाहों द्वारा मुंह मांगी कीमत अदा करनी पड़ी। दशाश्वमेध घाट के अतिरिक्त काशी अर्धचंद्राकार रूप में विस्तृत प्रायः सभी घाटों पर दीप प्रज्जवलित किए गए। इस अवसर पर दीपों के माध्यम से पुरखों और पितरों को भी श्रद्धांजलि अर्पित की गई। पंचगंगा घाट स्थित हजारा दीप फलक पर 1001 दीप जलाए गए।
मान्यताओं के अनुसार देव दीपावली की रात देवता पृथ्वी पर उतरते हैं। इसलए देवाराधना का यह पर्व आध्यात्मिक-धार्मिक लोगों की आस्था और आकर्षण का केंद्र बन गया। देव दीपावली पर इस बार गंगा घाटों के साथ ही गंगा के उस तार रेत पर भी लाखों दीपक जलाए गए। बीच में बहती गंगा में झिलमिलाती दीपों की छाया अविस्मरणीय दृश्य उपस्थित कर रही थी।
देव दीपावली पर रात्रि भर चलने वाले संगीत कार्यक्रमों का शुभारंभ सायंकाल दशाश्वमेध एवं राजेन्द्र प्रसाद घाट पर दीपदान एवं गंगा आरती के बाद प्रारंभ हुआ था।