कृतज्ञता मनुष्य की अनमोल निधि

- प्रेमकुमारी नाहटा

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वास्तव में उपकृत होने का एहसास ही मानव का मूल स्वभाव है तथा वह अंतर्मन से प्रस्फुटित होता है, किंतु हम इसे यत्नपूर्वक दबा देते हैं। असल में इसे हम अपनी कमजोरी मान लेते हैं। हम ऊपरी मन से भी धन्यवाद तभी कहते हैं, जब उसकी जरूरत या उपयोगिता नजर आए वरना अपने को मिली प्रत्येक सौगात या अपने प्रति की गई सेवा को हम बड़े-ठंडे व अनमने भाव से लेते हैं, मानो यह तो हमारा हक ही हो।

यह हमारा दुर्भाग्य ही होगा अगर ईश्वर या प्रकृति की कोई देन हमें रोमांचित नहीं करती या हमारे मन में आनंद और उल्लास का आवेग नहीं पैदा होता। हमारे मन में उसके प्रति ऋणी होने व नतमस्तक होने की इच्छा नहीं जगाती। हम पर भौतिकता इस कदर हावी हो गई है कि प्राकृतिक सौंदर्य से निःसृत आनंद की वर्षा में भी हम ठूँठ के समान अनछुए ही रह जाते हैं।

अपनी शारीरिक, भौतिक या आर्थिक जीवन में जरा-सी भी न्यूनता को लेकर हम दुःखी हो जाते हैं और कभी-कभी तो ईश्वर को भी कोसने लगते हैं। सच तो यह है कि अपनी खुशी, अपना सुख, अपनी नियामतें देखने के लिए कभी-कभी अपनी आँखें बंद कर लेना पड़ती हैं और फिर बंद आँखों से देखें कि आपके पास ऐसा क्या-क्या है, जो कइयों के पास नहीं है।

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आपकी उँगलियों में अँगूठियाँ भले ही न हों, पर उँगलियाँ तो सही सलामत हैं। आपकी थाली में पाँच पकवान न सही साधारण भोजन तो है, जो लाखों को नसीब नहीं होता। यही सोच आपको उस विधाता के प्रति कृतज्ञता से भर देगी।

अतः यदि जीवन खुशगवार नहीं रहे, उसमें से रस, रंग, महक खत्म हो जाए तो कारण है आपके मन से कृतज्ञता का भाव नष्ट हो गया है। याद रखिए कृतज्ञता व्यक्त करने से भी ज्यादा इसे महसूस करना जरूरी है।

कृतज्ञता व्यक्त कर हम सामाजिकता का निर्वाह करते हैं और सामने वाले को खुशी देते हैं, किंतु जो दिखाई न दे फिर भी जो सदैव सम्मुख है, उसके प्रति यह भाव पैदा करना खुशी पाने की प्रथम पायदान है। इसे अनुभव कर आप स्वयं को सींचते हैं, रससिक्त करते हैं और निःसंदेह तब जीवन में आशा और विश्वास की नई कोमल कोंपलें आकार लेती हैं।

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