क्या है योग का मूलमंत्र...

योग सर्वत्र है...

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योग कहां नहीं है- योग सर्वत्र है। यह स्थापित सत्य है। योग का अर्थ जोड़ना है। गणित की शुरुआत भी योग से होती है। जिंदगी का गणित भी योग से ही शुरू होता है। एक से दो फिर दो से तीन-चार और इस प्रकार विस्तार, कोई सीमा ही नहीं है। एक से दो होना भी योग की ही बात है।

जिसका जहां योग होता है वहां वह जुड़ता है। तभी तो कहा जाता है जोड़ियां स्वर्ग में तय होती हैं। हम भी जोड़ियों को मिलाते हैं, जमाते हैं पर यह भूल जाते हैं कि हम तो माध्यम मात्र हैं। रामजी सबकी जोड़ियां मिलाते हैं। योग सर्वत्र है।

जब योग होता है तब संयोग होता है। संयोग में जो योग है, अद्भुत है, सुखदायक है। इस तर्ज पर 'हमसे मिले तुम हो सजन, तुमसे मिले हम..।' जब ऐसा होता है तो यह भी होता है- 'दूरी न रहे कोई, तुम इतने करीब आओ/ मैं तुममें समा जाऊं, तुम मुझमें समा जाओ।' इस मिलन का आनंद आलौकिक है।

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संयोग के बाद वियोग में भी योग है। यह प्रकृति का नियम है। संयोग भरपूर मिलता है तो वियोग भी भरपूर मिलता है। वह भी इस तर्ज पर 'जीवन के सफर में, राही मिलते हैं बिछुड़ जाने को/ और दे जाते हैं यादें, तन्हाई में तड़पाने को।' जब तक कोई सामने रहता है उसकी कद्र नहीं होती है, उसके चले जाने के बाद उसकी कमी का अनुभव होता है। क्षणिक वियोग के बाद जब फिर संयोग होता है, उसका आनंद अनुपम होता है।

उपयोग में भी योग है। जो भी उपयोगी है वही योगी है। जब तक कोई उपयोगी रहता है उसकी पूछपरख होती रहती है, चाहे कोई वस्तु हो या व्यक्ति हो। इस बात का प्रमाण हमारा अपना शरीर है। शरीर के सारे अंग उपयोगी हैं। योग साधना से तन-मन दोनों स्वस्थ रहते हैं।

जिसने योग साध लिया वही योगेश्वर है। हर कोई योगेश्वर बन सकता है। बशर्ते कि वह सहयोगी हो। सहयोग में भी योग है। जो सहयोगी है वही कर्मयोगी है। योग का मूलमंत्र ही यही है कि कर्मनिष्ठ बनो, धर्मनिष्ठ बनो, सत्यनिष्ठ बनो। योग सुयोग बन सके इस हेतु यह आवश्यक है कि हम अपनी शक्ति पहचाने और उसका सदुपयोग करें।

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