...जब हुए सूर्य के दर्शन दुर्लभ

मैं किसके दर्शन करूँ....

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राव जगतसिंह जोधपुर के प्रथम महाराजा जसवंतसिंह के वंशज थे और रिश्ते में मीराबाई के भतीजे लगते थे। बलूंदा रियासत के वे शासक भी थे। वे वैष्णव भक्त थे और राजसी ठाट-बाट छोड़कर सदैव भजन में लीन रहते थे। मेवाड़ में उन्होंने एक मंदिर भी बनवाया था।

एक बार वर्षाकाल में एक दिन भारी वर्षा हुई। चारों ओर घना अंधकार छाया रहा और लोगों को सूर्य भगवान्‌ के दर्शन दुर्लभ हो गए। लेकिन उस समय जोधपुर के अनेक नर-नारियों ने सूर्य देवता के दर्शन किए बिना भोजन न करने का व्रत धारण कर रखा था।

उन्हें जब सूर्यदेवता के शीघ्र उदय होने की उम्मीद न रही, तो वे चिंतित हो गए। कुछ लोग जोधपुर-नरेश के पास गए और उनसे विनती की, 'महाराज, हमारे लिए तो आप ही सूर्य हैं। यदि आप हाथी पर सवार होकर सबको दर्शन दें, तो लोग भोजन कर सकेंगे।'

महाराज ने कहा- 'बात तो ठीक है, मैं लोगों को दर्शन दूँगा, मगर मैंने भी यह व्रत धारण कर रखा है और मेरे लिए भी सूर्य भगवान के दर्शन करना आवश्यक है। उनके उदित न होने से मैं किसके दर्शन करूँ?' उन्हें राव जगतसिंहजी का ख्याल आया और वे उनके पास गए।

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जगतसिंह उस समय श्री श्यामसुंदरजी की पूजा कर रहे थे। पूजा समाप्त होने पर जब नरेश ने अपने आने का प्रयोजन बताया, तो उन्हें बड़ा संकोच हुआ कि उन्हें सूर्य देवता का-सा सम्मान दिया जाएगा।

भगवान की श्रेणी में अपनी गणना किया जाना उन्हें उचित न लगा। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और वे सूर्य भगवान की लोगों को दर्शन देने के लिए कातर भाव से प्रार्थना करने लगे।

भगवान भुवन भास्कर ने उनकी प्रार्थना सुनी और बादलों को चीरकर वे प्रकट हो गए। उनके दर्शन से लोगों को हर्ष हुआ और उन्होंने अपने को कृतार्थ माना।

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