जीवन-मृत्यु : मंगलमय यात्रा

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जीवन और मृत्यु आत्मा और परमात्मा को पाने के दो पहलू हैं। रात के बाद दिन, दिन के बाद रात होती है। इसी तरह चोले बदलते हुए... अनुभवों से गुजरते हुए अपने आत्मस्वरूप को ब्रह्मस्वरूप को पाने के लिए मंगलमयी व्यवस्था है। दिन जितना प्यारा है, रात भी उतनी ही आवश्यक है।

जीवन जितना प्यारा है, मृत्यु भी उतनी ही आवश्यक है। मृत्यु यानी माँ की गोद में बालक सो गया, मृत्यु यानी माँ की गोद में थकान मिटाने जाना फिर ऊष्मा, शक्ति, ताजगी, स्फूर्ति नया तन प्राप्त करके अपनी मंगलमय यात्रा प्रारंभ करना। तत्वदृष्टि से देखें तो जीवन मृत्यु की यह यात्रा, हमें परमात्मस्वरूप में जगाने के लिए प्रकृति में हो रही है।

गीता (2.20) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- 'तत्वतः यह आत्मा न कभी जन्मती है न मरती है, न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाली है। यह जन्मरहित, नित्य निरंतर रहने वाली, शाश्वत और पुरातन (अनादि) है। शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारी जाती।'
  जीवन और मृत्यु आत्मा और परमात्मा को पाने के दो पहलू हैं। रात के बाद दिन, दिन के बाद रात होती है। इसी तरह चोले बदलते हुए... अनुभवों से गुजरते हुए अपने आत्मस्वरूप को ब्रह्मस्वरूप को पाने के लिए मंगलमयी व्यवस्था है।      


शव की श्मशान यात्रा में मटका ले जाते हैं, फोड़ देते हैं, यह याद दिलाने के लिए कि यह देह मानो मटका है। इस मंगलमय मृत्यु को लेकर विह्वल होने की आवश्यकता नहीं है। यह मटका तो सेवा करने के लिए मिला था... जीर्ण-शीर्ण हुआ... टूट गया... फिर नया मिलेगा। मंगलमय आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति तक यह मंगलमय जन्म-मरण की यात्रा तो चलती ही रहेगी। यदि किसी की मृत्यु न हो तो संसार महानरक हो जाएगा। माली अगर बगीचे में काट-छाँट ही न करे तो बगीचा भयानक जंगल हो जाएगा।

सृष्टा ने मृत्यु का मंगलमय विधान न बनाया होता तो आदमी में त्याग, सेवा, और नम्रता के सद्गुण ही नहीं पनपते। सब अमर होकर आपस में उलझते रहते।

मृत्यु यानी महायात्रा, महाप्रस्थान, महानिद्रा। अतः जो मृत्यु को प्राप्त हो गए, उनकी यात्रा मंगलमय हो, आत्मोन्नतिप्रद हो ऐसा चिंतन करें, न कि अपने मोह और अज्ञान के कारण उनको भी भटकाएँ और स्वयं भी दुःखी हों।

वास्तव में न तो कोई जीता है, न ही कोई मरता है। प्रकृति में केवल परिवर्तन होता है। इस परिवर्तन में अपनी स्वीकृति तो जीवन लगता है, किंतु बिना इच्छा के खींचा जाना या जबरन उसे 'स्वीकार' करना हमें मौत लगता है। हमें जीवन-मृत्यु की समस्या को सुलझाकर अपने भीतर निरंतर गूँजते शाश्वत जीवन का सुर सुनकर परम्‌ निर्भय हो जाना चाहिए, ताकि हमारे जीवन और मृत्यु मंगलमय बन सके।

( संतश्री आसाराम बापू के विचार)

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