जैसा संग, वैसा रंग...!

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यदि आप संतों से जुड़ेंगे तो भक्ति का आपके जीवन में प्रारंभ होगा। किसी ने ठीक ही तो कहा है कि जैसा करे संग वैसा चढ़े रंग। संत महापुरुष कहते थे कि यह कथा भी बड़ी विचित्र चीज है। न जाने कितने डॉक्टरों का घर जुड़वा दिया, कितने इंजीनियरों का घर जुड़वा दिया! लेकिन आप मत घबराना। जिसका छूटना है, वह छूट ही जाएगा और जिसका नहीं छूटना है, उसे तो भगवान भी आकर कथा सुनाएं तो भी नहीं छूटेगा!

अब सवाल यह उठता है कि जिसकी संगति की जाए वह संत कौन है? ग्रंथों में अनेक जगह संतों के लक्षण लिखे हैं लेकिन आप सीधी बात समझ लें कि संत वह है जिसके जीवन में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य मौजूद है। संत का अर्थ है वह व्यक्ति है जो भगवान के लिए सर्वस्व का त्याग कर चुका है या जो सर्वस्व छोड़ सकता है या फिर जिसका सब कुछ छूट रहा है। संत वह है जो पूरे समय भगवान का अनुभव कर रहा है, उनकी लीला का दर्शन कर रहा है। भगवान की अनुभूति से जिसका जीवन आनंदित है।

संत तो हमेशा ही मौजूद होते हैं, खोजने वाला चाहिए। संत यदि आपको मिल गए और संत के प्रति आपका समर्पण हो गया तो यह देखे बगैर कि आपकी योग्यता है या नहीं। संत आपकी सिफारिश भगवान से कर देंगे और भगवान आपको स्वीकार कर लेंगे। आप कहेंगे कि कहीं ऐसा हुआ है?

हां, रामचरितमानस में ही ऐसा हुआ है। उस प्रसंग को याद कीजिए जब बालि के भय के कारण सुग्रीव किष्किंधा में ऋष्यमूक पर्वत पर रह रहे हैं और वहां हनुमंतलालजी भी हैं। सुग्रीव वहां इसलिए छिपा था क्योंकि श्राप के कारण बालि इस पहाड़ पर नहीं आ सकता था। फिर भी सुग्रीव भयभीत रहता था कि कहीं बालि उसे अपने अनुचरों से न मरवा दे।

इसलिए जब प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण उसे दिखाई दिए तो वह भयभीत हो गया। भयभीत व्यक्ति को हर जगह संकट ही दिखाई देता है। उसने हनुमंतललाजी को पता लगाने भेजा कि वह कौन आ रहा है?

आप कथा जानते ही हैं कि वहां हनुमंतललाजी और प्रभु का बड़ा सुंदर मिलन हुआ। अब जरा गौर कीजिए कि यहां पर हनुमंतललाजी से प्रभु का क्या संवाद हुआ है। इससे पता चलेगा कि क्या है सद्गुरु की भूमिका, क्या है संत की भूमिका। सुग्रीम अभी प्रभु से मिला नहीं है लेकिन हनुमंतललाजी प्रभु से उसके बारे में निवेदन कर रहे हैं। वे सुग्रीव का जो परिचय दे रहे हैं, वह सुग्रीव का परिचय है ही नहीं।

यह संत की करुणा थी, सुग्रीव को प्रभु से जोड़ने का प्रयास था। संत यह करुणा न दिखाए तो जीव परमात्मा से कैसे जुड़ेगा, क्योंकि जीव स्वयं संपन्न होकर प्रभु से नहीं जुड़ सकता अपितु संत ही करुणा करके उसे प्रभु से जोड़ देते हैं।

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