फ्रीडम फ्राम द नोन और कृष्णमूर्ति

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अनुवाद एवं प्रस्तुति -रमेश दव े

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युगों से मनुष्य मनुष्येतरता की खोज में लगा है। अपने से ऊपर की खोज, भौतिक, मंगल से ऊपर की खोज, जिसे ईश्वर या अन्तिम सत्य कहा जाता है। एक कालहीन स्थिति जो परिस्थितियों से विचलित न हो, न विचार से विचलित और न मानवीय विश्रृंखलता से विचलित। मनुष्य ने इस पर सवाल किया है कि आखिर यह सब क्या है?

क्या जीवन का कोई अर्थ है? उसे जीवन में भीषण असमंजस दिखाई देता है, उसे जंगली निर्ममताएँ, विद्रोह, युद्ध, धर्मों के अनन्त विग्रह और विभाजन, विचारधाराओं और राष्ट्रीयताओं के भयावह भेदभाव जब दिखाई देते हैं, तो वह निराश और कुण्ठित होकर पूछता है- आखिर मुझे करना क्या है? जिसे हम जीवन कहते हैं, वह क्या है? क्या जीवन से ऊपर भी कुछ है? कृष्णमूर्ति इन सवालों के जवाब आत्मचेतना से ढूँढने के लिए कहते हैं। वे इसे निरीह मूर्खता मानते हैं, कि वे जो रास्ता दिखाएँ उस पर लोग चल पड़ें। वे तो इसे संयुक्त खोज का विषय मानते हैं। मन की अन्तरतम गहराइयों की सतत्‌ और संयुक्त यात्रा जीवन के इन प्रश्नों के उत्तर खोज सकती है।

इस पुस्तक में कृष्णमूर्ति जीवन के शाश्वत प्रश्नों से उलझे आदमी की विडम्बना को जाहिर करते हैं। मनुष्य की अपनी खोज, मन की उत्पीड़ित स्थिति, पारम्परिक तरीकों से व्यर्थ के सम्मानबोध में फँसना, व्यक्ति के रूप में मनुष्य और उसके अस्तित्व का संघर्ष, उत्तरदायित्व, सत्य, आत्मरूपान्तरण, ऊर्जा का विस्तार और सत्ता से मुक्ति जैसी बातों पर कृष्णमूर्ति अत्यन्त मुखर होकर अपनी बातें कहते हैं।

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अपने आप सीखना, सरलता और नम्रता, अनावश्यक अनुकूलन, जीवन की समग्रता और चेतना, आनन्द की उपलब्धि के प्रति इच्छा, विचारों का स्खलन, स्मृति, आत्मसम्बद्धता, जैसे कठिन विषयों को जहाँ उन्होंने अपने ढंग से समझाने का प्रयास किया है, वहीं भय, हिंसा, क्रोध, किसी चीज के युक्तियुक्तकरण या तिरस्कार पर अपनी चिन्ता जाहिर की है, क्योंकि ये जीवन की संवादिता या समन्वयात्मक एकता को नष्ट करते हैं।

जब वे सम्बन्धों की चर्चा करते हैं, तो सामाजिक संघर्ष गरीबी, उपचार निर्भरता, इच्छाओं और आदर्शों के बीच तैरती पाखण्डी वृत्ति पर भी हमला करते हैं। मुक्ति, क्रान्ति, एकांत और निरीहता, अपने आपको जैसा हम हैं, वैसा रखने में कितने सहायक हो सकते हैं- इस पर उनके विचार अद्भुत हैं। देखकर, सुनकर, कला और सौंदर्य, के बीच खड़े होने की वे बात करते हैं और ऑब्जर्वर और ऑब्जर्व्ड के साथ चिन्तन, विचार, कर्म, वस्तु या पदार्थ की चुनौतियाँ मौजूद पाते हैं।

यहाँ कृष्णमूर्ति ने अतीत के बोझ, शान्ति-चित्त, संवाद और सम्प्रेषण, उपलब्धि, अनुशासन, मौन आदि के पारम्परिक स्वरूप को नकारा भी है। अनुभव और सन्तोष के बीच का द्वैत, समग्र क्रान्ति, आध्यात्मिक मन, ऊर्जा और संवेग आदि को भी कृष्णमूर्ति स्थापित विश्वासों को उपलब्धि के बजाय अन्वेषण की वस्तु मानते हैं।

वे तो अपनी अन्तिम भारत यात्रा में कह गए थे कि मेरे मरने के बाद मेरा स्मारक, मेरी मूर्ति मेरे नाम से मठ-विहार या संस्था न बनाएँ। मैंने अपना रास्ता बनाया और जिया, लोग उनका रास्ता बन ाए ँ और जिएँ।
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