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भविष्य का धर्म एवं दर्शन

स्वरूप एवं प्रतिमान

Webdunia
- प्रो. महावीर सरन जै न

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विज्ञान की उपलब्धियों एवं अनुसंधानों ने मनुष्य को चमत्कृत कर दिया है। प्रतिक्षण अनुसंधान हो रहे हैं। जिन घटनाओं को न समझ पाने के कारण उन्हें अगम्य रहस्य मान लिया गया था वे आज अनुसंधेय हो गई हैं। तत्वचिन्तकों ने सृष्टि की बहुत-सी गुत्थियों की व्याख्या परमात्मा एवं माया के आधार पर की। इस कारण उनकी व्याख्या इस लोक का यथार्थ न रहकर परलोक का रहस्य बन गई। आज का व्यक्ति उनके बारे में भी जानना चाहता है। अन्वेषण की जिज्ञासा बढ़ती जा रही है।

भौतिकवादी प्रगति एवं विकास का पथ प्रशस्त हो रहा है। भौतिकवादी प्रगति एवं विकास के बावजूद मनुष्य संतुष्ट नहीं है। वह मकान तो आलीशान बना पा रहा है मगर घर नहीं बसा पा रहा है। परिवार के सदस्यों के बीच प्यार एवं विश्वास की कमी होती जा रही है। व्यक्ति की चेतना क्षणिक, संशयपूर्ण एवं तात्कालिकता में केन्द्रित होती जा रही है। सम्पूर्ण भौतिक सुखों को अकेला ही भोगने की दिशा में व्यग्र मनुष्य अन्ततः अतृप्ति का अनुभव कर रहा है।

आज के संत्रस्त मनुष्य को आशा एवं विश्वास की आलोकशिखा थमानी है। आज के संत्रस्त मनुष्य को जीवन मूल्यों पर विश्वास करना सिखाना है। समस्या यह है कि व्यक्ति परम्परागत मूल्यों पर विश्वास नहीं कर पा रहा है। उसके लिए वे अविश्वसनीय एवं अप्रासंगिक हो गए हैं। नए युग को नए जीवन-मूल्य चाहिए। परिवर्तन सृष्टि का नियम है। संसार को अब ऐसे धर्म-दर्शन की आवश्यकता है जो व्यक्ति को सुख प्रदान कर सके; उसे शांति दे सके; उसकी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक एवं राजनैतिक समस्याओं का समाधान कर सके।

वैज्ञानिक विकास के कारण हमने जिस शक्ति का संग्रह किया है, उसका उपयोग किस प्रकार हो; प्राप्त गति एवं ऊर्जा का नियोजन किस प्रकार हो, यह आज के युग की जटिल समस्या है। विज्ञान ने हमें शक्ति, गति एवं ऊर्जा प्रदान की है। लक्ष्य हमें धर्म एवं दर्शन से प्राप्त करने हैं।

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धर्म ही ऐसा तत्व है जो मानव मन की असीम कामनाओं को सीमित करने की क्षमता रखता है। धर्म मानवीय दृष्टि को व्यापक बनाता है। धर्म मानव मन में उदारता, सहिष्णुता एवं प्रेम की भावना का विकास करता है। समाज की व्यवस्था, शांति तथा समाज के सदस्यों में परस्पर प्रेम, सद्भाव एवं विश्वासपूर्ण व्यवहार के लिए धर्म का आचरण एक अनिवार्य शर्त है। इसका कारण यह है कि मन की कामनाओं को नियंत्रित किए बिना समाज रचना संभव नहीं है। जिंदगी में संयम की लगाम आवश्यक है। कामनाओं को नियंत्रित करने की शक्ति या तो धर्म में है या शासन की कठोर व्यवस्था में।

धर्म संप्रदाय नहीं है। जिंदगी में हमें जो धारण करना चाहिए, वही धर्म है। नैतिक मूल्यों का आचरण ही धर्म है। धर्म वह पवित्र अनुष्ठान है जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म वह तत्व है जिसके आचरण से व्यक्ति अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। यह मनुष्य में मानवीय गुणों के विकास की प्रभावना है।

मध्ययुग में विकसित धर्म एवं दर्शन के परम्परागत स्वरूप एवं धारणाओं के प्रति आज के व्यक्ति की आस्था कम हो गई है। मध्ययुगीन धर्म एवं दर्शन के प्रमुख प्रतिमान थे - स्वर्ग की कल्पना, सृष्टि एवं जीवों के कर्ता रूप में ईश्वर की कल्पना, वर्तमान जीवन की निरर्थकता का बोध, अपने देश एवं काल की माया एवं प्रपंचों से परिपूर्ण अवधारणा। मध्ययुगीन चेतना के केन्द्र में ईश्वर का कर्त्तत्व रूप प्रतिष्ठित था। अपने श्रेष्ठ आचरण, श्रम एवं पुरुषार्थ द्वारा अपने वर्तमान जीवन की समस्याओं का समाधान करने की ओर ध्यान कम था, अपने आराध्य की स्तुति एवं जयगान करने में ध्यान अधिक था। ( क्रमश:)
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