संत ने बहाई धर्म की धारा

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आद्य शंकराचार्य वेदांत पारंगत स्वामी गोविंद भगवत्पाद से मिलने बद्रीनाथ की ओर चले। मार्ग में वे जब थक गए तो रास्ते में एक तालाब के किनारे बैठकर विश्राम करने लगे। अचानक उन्होंने देखा कि समीप ही कुछ मेंढक आपस में खेल रहे हैं। वे उनका खेल देखते हुए अपनी थकावट मिटाने लगे। ग्रीष्म ऋतु की भरी दोपहरी थी। भीषण ऊष्मा से जब शंकराचार्य त्रस्त हो उठे तो मेंढकों की क्या बात? तालाब का पानी तक गरम हो गया और मेंढकों को भी असह्य हो गया।

इतने में एक मेंढक की जोर-जोर से 'टर्र-टर्र' की ध्वनि सुनाई पड़ी। बात यह थी कि मेंढक का वह नन्हा बच्चा भीषण आतप को सहने में असमर्थ होकर पानी से बाहर निकले आर्त स्वर में सहायता के लिए चिल्ला रहा था। थोड़ी ही देर में वहाँ एक भुजंग आया और उसने मेंढक के बच्चे पर अपना फन पसार दिया। शंकराचार्य ने देखा तो चकित रह गए। आश्चर्य की बात थी कि भक्षक ही रक्षक बन गया था।

शंकराचार्य अपने गुरु के पास गए और यह घटना सुनाई। तब स्वामीजी ने कहा- 'यह स्थल पहले श्रृंगी ऋषि का पावन आश्रम था, जहाँ सभी जीव बैर-भाव भूलकर आपस में भाईचारे का बर्ताव करते थे।'

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आचार्य ने ये शब्द सुने और उनके अंतर्मन में निम्न विचार कौंध उठे, 'जब भक्षक और भक्ष्य में ऐक्य संभव है तो मानव-मानव में क्यों नहीं?' उनके मनश्चक्षुओं के सामने हिमाचल से कन्याकुमारी तक का विशाल क्षेत्र उपस्थित हो गया। उन्होंने सोचा कि यदि दक्षिण के लोग हिमगिरि का उत्तर के लोगों के समान ही श्रद्धा और आदर भाव से नतमस्तक हो गौरव करें और उत्तर के लोगों में दक्षिण के लोगों के समान रामेश्वरम्‌ के प्रति श्रद्धा जाग्रत हो तो देश में एकता हो सकती है।

उन्होंने पूरे देश का भ्रमण किया तथा उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम्‌, पूर्व में पुरी तथा पश्चिम में द्वारका के समीप मठों की स्थापना की।

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