सर्वधर्म समभाव

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- महावीर सरन जैन

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धर्म की प्रासंगिकता एक व्यक्ति की मुक्ति में ही नहीं है। धर्म की प्रासंगिकता एवं प्रयोजनशीलता शान्ति, व्यवस्था, स्वतंत्रता, समता, प्रगति एवं विकास से सम्बन्धित समाज सापेक्ष परिस्थितियों के निर्माण में भी निहित है।

धर्म का सम्बन्ध आचरण से है। धर्म आचरणमूलक है। दर्शन एवं धर्म में अन्तर है। दर्शन मार्ग दिखाता है, धर्म की प्रेरणा से हम उस मार्ग पर बढ़ते हैं। हम किस प्रकार का आचरण करें- यह ज्ञान दर्शन से प्राप्त होता है। जिस समाज में दर्शन एवं धर्म में सामंजस्य रहता है, ज्ञान एवं क्रिया में अनुरूपता होती है, उस समाज में शान्ति होती है तथा सदस्यों में परस्पर मैत्री-भाव रहता है।

भारत वर्ष में दर्शन और चिन्तन के धरातल पर जितनी विशालता, व्यापकता एवं मानवीयता रही है, उतनी आचरण के धरातल पर नहीं रही। जब चिन्तन एवं व्यवहार में विरोध उत्पन्न हो गया तो भारतीय समाज की प्रगति एवं विकास की धारा भी अवरुद्ध हो गई। दर्शन के धरातल पर उपनिषद् के चिन्तकों ने प्रतिपादित किया कि यह जितना भी स्थावर जंगम संसार है, वह सब एक ही परब्रह्म के द्वारा आच्छादित है।

उन्होंने संसार के सभी प्राणियों को 'आत्मवत्‌' मानने एवं जानने का उद्‍घोष किया, मगर सामाजिक धरातल पर समाज के सदस्यों को उनके गुणों के आधार पर नहीं अपितु जन्म के आधार पर जातियों, उपजातियों, वर्णों, उपवर्णों में बाँट दिया तथा इनके बीच ऊँच-नीच की दीवारें खड़ी कर दीं।

धर्म साधना की अपेक्षा रखता है। धर्म के साधक को राग-द्वेषरहित होना होता है। धार्मिक चित्त प्राणिमात्र की पीड़ा से द्रवित होता है। तुलसीदास ने कहा- 'परहित सरिस धरम नहीं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई'। सत्य के साधक को बाहरी प्रलोभन अभिभूत करने का प्रयास करते हैं। मगर वह एकाग्रचित्त से संयम में रहता है। प्रत्येक धर्म के ऋषि, मुनि, पैगम्बर, संत, महात्मा आदि तपस्वियों ने धर्म को अपनी जिन्दगी में उतारा। उन लोगों ने धर्म को ओढ़ा नहीं अपितु जिया। साधना, तप, त्याग आदि दुष्कर हैं। ये भोग से नहीं, संयम से सधते हैं। धर्म के वास्तविक स्वरूप को आचरण में उतारना सरल कार्य नहीं है। महापुरुष ही सच्ची धर्म-साधना कर पाते हैं।

इन महापुरुषों के अनुयायी जब अपने आराध्य-साधकों जैसा जीवन नहीं जी पाते तो उनके नाम पर सम्प्रदाय, पंथ आदि संगठनों का निर्माण कर, भक्तों के बीच आराध्य की जय-जयकार करके अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अनुयायी साधक नहीं रह जाते, उपदेशक हो जाते हैं। ये धार्मिक व्यक्ति नहीं होते, धर्म के व्याख्याता होते हैं। इनका उद्देश्य धर्म के अनुसार अपना चरित्र निर्मित करना नहीं होता, धर्म का आख्यान मात्र करना होता है। जब इनमें स्वार्थ-लिप्सा का उद्रेक होता है तो ये धर्म-तत्वों की व्याख्या अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए करने लगते हैं।

धर्म की आड़ में अपने स्वार्थों की सिद्धि करने वाले धर्म के दलाल अथवा ठेकेदार अध्यात्म सत्य को भौतिकवादी आवरण से ढँकने का बार-बार प्रयास करते हैं। इन्हीं के कारण चित्त की आन्तरिक शुचिता का स्थान बाह्य आचार ले लेते हैं। पाखंड बढ़ने लगता है। कदाचार का पोषण होने लगता है। जब धर्म का यथार्थ अमृत तत्व सोने के पात्र में कैद हो जाता है तब शताब्दी में एकाध साधक ऐसे भी होते हैं जो धर्म-क्रान्ति करते हैं, धर्म के क्षेत्र में व्याप्त अधार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता पर प्रहार कर, उसके यथार्थ स्वरूप का उद्‍घाटन करते हैं।

मध्य युग में धर्म के बाह्य आचारों एवं आडम्बरों को सन्त कवियों ने उजागर किया। सन्त नामदेव ने 'पाखण्ड भगति राम नही रीझें' कहकर धर्म के तात्विक स्वरूप की ओर ध्यान आकृष्ट किया तो कबीर ने 'जो घर फूँके आपना, चले हमारे साथ' कहकर साधना-पथ पर द्विधारहित एवं संशयहीन मनःस्थिति से कामनाओं एवं परिग्रहों को त्यागकर आगे बढ़ने का आह्वान किया। पंडित लोग पढ़-पढ़कर वेदों का बखान करते हैं, किन्तु इसकी सार्थकता क्या है? जीवन की चरितार्थता आत्म-साधना में है और ऐसी ही साधना के बल पर दादूदयाल यह कहने में समर्थ हो सके कि 'काया अन्तर पाइया, सब देवन को देव'।

दर्शन के धरातल पर हमें प्रतिपादित करना होगा कि धर्म न कहीं गाँव में होता है और न कहीं जंगल में बल्कि वह तो अन्तरात्मा में होता है। अन्तरात्मा के दर्शन एवं परिष्कार से कल्याण सम्भव है। शास्त्रों के पढ़ने मात्र से उद्धार सम्भव नहीं है। यदि चित्त में राग एवं द्वेष है तो समस्त शास्त्रों में निष्णात होते हुए भी व्यक्ति धार्मिक नहीं हो सकता। क्या किसी 'परम सत्ता' एवं हमारे बीच किसी 'तीसरे' का होना जरूरी है? क्या लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्वर के सामने शरणागत होना ही अध्यात्म साधना है? क्या धर्म-साधना की फल-परिणति सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति में निहित है?

सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के उद्देश्य से आराध्य की भक्ति करना धर्म है अथवा सांसारिक इच्छाओं के संयमन के लिए साधना-मार्ग पर आगे बढ़ना धर्म है? क्या स्नान करना, तिलक लगाना, माला फेरना आदि बाह्य आचार की प्रक्रियाओं को धर्म-साधना का प्राण माना जा सकता है? धर्म की सार्थकता वस्तुओं एवं पदार्थों के संग्रह में है अथवा राग-द्वेष रहित होने में है? धर्म का रहस्य संग्रह, भोग, परिग्रह, ममत्व, अहंकार आदि के पोषण में है अथवा अहिंसा, संयम, तप, त्याग आदि के आचरण में? आत्मस्वरूप का साक्षात्कार अहंकार एवं ममत्व के विस्तार से सम्भव नहीं है।

अपने को पहचानने के लिए अन्दर झाँकना होता है, अन्तश्चेतना की गहराइयों में उतरना होता है। धार्मिक व्यक्ति कभी स्वार्थी नहीं हो सकता। आत्म-गवेषक अपनी आत्मा से जब साक्षात्कार करता है तो वह 'एक' को जानकर 'सब' को जान लेता है, पहचान लेता है, सबसे अपनत्व-भाव स्थापित कर लेता है।

आत्मानुसंधान की यात्रा में व्यक्ति एकाकी नहीं रह जाता, उसके लिए सृष्टि का प्रत्येक प्राणी आत्मतुल्य हो जाता है। एक की पहचान सबकी पहचान हो जाती है तथा सबकी पहचान से वह अपने को पहचान लेता है। भाषा के धरातल पर इसमें विरोधाभास हो सकता है, अध्यात्म के धरातल पर इसमें परिपूरकता है।

जब व्यक्ति आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रत्येक पर-पदार्थ के प्रति अपने ममत्व एवं अपनी आसक्ति का त्याग करता है तब वह राग-द्वेषरहित हो जाता है, वह आत्मचेतना से जुड़ जाता है, शेष सबके प्रति उसमें न राग रहता है न द्वेष।

इसी प्रकार जब साधक सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को आत्मतुल्य समझता है तब भी उसका न किसी से राग रह जाता है और न किसी से द्वेष। धर्म का अभिप्राय व्यक्ति के चित्त का शुद्धिकरण है जहाँ पिण्ड में ही ब्रह्माण्ड' है। समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, प्रेमभाव तथा समभाव होना ही धर्म है और इस दृष्टि से 'सर्वधर्म समभाव' में से यदि विशेषणों को हटा दें तो शेष रह जाता है- 'धर्म-भाव'। सम्प्रदाय में भेद दृष्टि है, धर्म में अभेद-दृष्टि। हमारी कामना है कि विश्व में इसी अभेद-दृष्टि का विकास हो। धर्म से पहले जुड़ने वाला कोई भी 'विशेषण' किसी भी स्थिति में कभी भी अपने 'विशेष्य' से अधिक महत्वपूर्ण न बने।

प्रत्येक धर्म में व्यक्ति के राग-द्वेष के कारणों को दूर करने का विधान स्पष्ट है। क्रोध से द्वेष का तथा अहंकार, माया एवं लोभ से राग का परिपाक होता है। व्यक्ति क्षमा द्वारा क्रोध को, मार्दव या विनम्रता द्वारा अहंकार को, आर्जव या निष्कपटता द्वारा माया या तृष्णा को तथा शुचिता द्वारा लोभ को जीतता है। तदनन्तर व्यक्ति सत्य का प्रकाश प्राप्त कर पाता है। संयम के द्वारा व्यक्ति इन्द्रियों की विषय-उन्मुखता पर प्रतिबन्ध लगाता है या उन्हें नियंत्रित करता है। तप रूपी अग्नि में कषाय, वासनाएँ, कल्मषताएँ जल जाती हैं। इसके बाद व्यक्ति संचित पदार्थों का त्याग करता है, वस्तुओं के प्रति आसक्ति समाप्त करता है तथा काम भाव को संयत कर काम-वासना पर विजय प्राप्त करता है।

विश्व के सभी धर्मों में नैतिक मूल्यों का प्रतिपादन है, मानव मूल्यों की स्थापना है, मानव-जाति में सदाचारण के प्रसार का प्रयास है। इन नैतिक मूल्यों, सद्‍गुणों एवं सदाचारों को व्यक्त करने वाली शब्दावली में भिन्नता होने के कारण बाह्य धरातल पर हमें धर्मों के साधना-पक्ष में अन्तर प्रतीत होता है, तात्विक दृष्टि से सभी धर्म मनुष्य के सद्पक्ष को उजागर करते हैं, सामाजिक जीवन में शान्ति, बन्धुत्व, प्रेम, अहिंसा एवं समतामूलक विकास के पक्षधर हैं। सर्वधर्म समभाव की उदात्त चेतना का विकास सम्भव है। मतवादों का भेद हमारे ज्ञान एवं प्रतिपादन शक्ति की अपूर्णता के कारण है। प्रत्येक तत्व पर अनेक दृष्टियों से विचारच्च सम्भव है।

एकांगी प्रतिपादन के कारण वे परस्पर विरोधी प्रतीत होती हैं। प्रतीत होने वाले विरोधों का शमन सम्भव है। उदाहरण के लिए संग्रहनय की अपेक्षा से वेदान्त दर्शन तथा ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से बौद्ध दर्शन की संगत व्याख्या सम्भव है। प्रतीयमान विरोधी दर्शनों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है।
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